बस लहजा ही तो नरम चाहिए
एक स्नेहिल गुज़ारिश
आज की दुनिया में हर कोई दौड़ रहा है—कभी करियर की दिशा में, कभी समय से आगे निकलने की होड़ में, तो कभी अपने सपनों की तलाश में। इस भागती-दौड़ती ज़िंदगी में रिश्तों की मिठास, संवेदनाओं की गर्माहट, और संवाद की कोमलता जैसे कहीं खोती जा रही है। सबसे अधिक प्रभावित होने वाला रिश्ता है—मात-पिता और संतान का रिश्ता।
हमारे माता-पिता जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन हमारी परवरिश में समर्पित कर दिया, आज उसी संतान से मुलाकात करते समय इस एक छोटी-सी गुज़ारिश के साथ खड़े हैं:
“मात पिता के लिए
इतना तो शर्म रखना,
जब भी मिलो उनसे,
बस, लहजा नर्म रखना।”
ये एक शेर नहीं, बल्कि उन लाखों माता-पिताओं की खामोश पुकार है, जो अपने बच्चों से किसी भौतिक चीज़ की अपेक्षा नहीं रखते—न धन, न समय, न सुविधा—बस चाहते हैं एक स्नेहभरा लहजा, एक सम्मान से भरा संवाद।
समस्या की जड़: भागमभाग भरा जीवन
वर्तमान सामाजिक ढाँचा तेज़ी से बदला है। पहले जहाँ एक संयुक्त परिवार में संवाद और अपनापन एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी, वहीं अब एकल परिवारों, व्यस्त दिनचर्या और डिजिटल संवाद ने मानवीय जुड़ाव को प्रभावित किया है। समय की कमी ने रिश्तों को “फॉर्मल” बना दिया है। पर माता-पिता के लिए तो संतान कभी औपचारिक नहीं होती।
वे समझते हैं कि समय बदल गया है, ज़िम्मेदारियाँ बढ़ गई हैं। लेकिन क्या इस तेज़ रफ़्तार जीवन में एक कोमल शब्द के लिए, एक मुस्कान के लिए, एक नम्र लहजे के लिए भी जगह नहीं बची?
एक सरल समाधान: बस लहजा बदलें
माता-पिता कोई कठिन मांग नहीं कर रहे। वे नहीं चाहते कि आप घंटों उनके साथ बैठें, या अपनी ज़िंदगी रोक दें। वे बस यह चाहते हैं कि जब भी आप मिलें—वो मिलना फोन पर हो, वीडियो कॉल पर, या कुछ पल आमने-सामने—तो बातों में एक मिठास हो, आवाज़ में आदर हो, लहजे में अपनापन हो।
“लहजे की मिठास वो दवा है, जो हर शिकायत, हर अकेलेपन का इलाज बन जाती है।”
वैश्विक संदेश
यह केवल भारत की बात नहीं है। दुनिया भर में माता-पिता अपने बच्चों की व्यस्त ज़िंदगी को समझते हुए भी, भावनात्मक उपेक्षा से टूटते हैं। जापान से लेकर अमेरिका तक, हर जगह वृद्धाश्रमों में बुजुर्ग माता-पिता की आँखें अपने बच्चों की एक मुस्कान को तरसती हैं।
यह लेख एक वैश्विक अपील है—हम सभी से—कि हम अपनी आवाज़ का लहजा नर्म करें, अपने संवाद में संवेदनशीलता लौटाएं।
यदि हम अपने व्यस्त जीवन में भी थोड़ी सी जगह “सम्मान और स्नेह के शब्दों” के लिए निकाल लें, तो शायद हम अपने माता-पिता को वह दे सकें जिसकी उन्हें सबसे ज़्यादा ज़रूरत है—
एक कोमल संवाद, एक मानवीय लहजा।
“माँ-बाप कभी कुछ नहीं मांगते,
पर उनका दिल हर शब्द का वजन जानता है।
लहजा रखो नरम,
क्योंकि यही सबसे बड़ा सम्मान है।”