जब कल्पना, उत्तरदायित्व से ना जुड़े

“जब कल्पना, उत्तरदायित्व से न जुड़े…”

सुना है कि

‘कल्पनाशीलता जब उत्तरदायित्व से जुड़ती है, तभी वह अमर कृति बनती है’।

पर आज के भारत में यह मेल कहीं टूटता-सा दिखता है तो इसलिए कि हर कोई उत्तरदायित्व से बच उसको दूसरे पर डाल बच निकसलना चाहता है।

मसलन देश में स्वच्छता को लेकर अभियान तो चलाए जा रहे हैं, योजनाएँ बन रही हैं, और कुछ स्थानों पर कार्य भी हुआ है, लेकिन जमीनी हकीकत अब भी अलग कहानी कहती है। स्वच्छता के नाम पर कुछेक गड्ढों को पाट देना, दीवारों पर पेंटिंग करा देना या थोड़ी बहुत झाड़ू चला देना पर्याप्त नहीं है। जब कोई भी कार्य केवल औपचारिकता बनकर रह जाए, तो उसका प्रभाव टिकाऊ नहीं होता। दिल्ली स्थित गाज़ीपुर के कूड़े के ढेर के जैसे पहाड़ अन्य शहरों में भी लगने लगे हैं।

आज कई ऐतिहासिक स्मारक—जो कभी हमारे गौरव, शौर्य और सांस्कृतिक पहचान के प्रतीक रहे—उनके परिसर में प्लास्टिक की बोतलें, गुटखा के पाउच और खाने के रैपर बिखरे हुए मिल जाते हैं। एक समय था जब ये स्मारक मिट्टी से बने होते थे, तब भी उनमें एक आत्मा थी, एक कहानी थी। अब जब उन्हें ‘संरक्षण’ के नाम पर पक्का कर दिया गया है, तो उनका भाव तो खो ही गया है, साथ ही उन पर जमी गंदगी और अव्यवस्था और अधिक स्पष्ट हो गई है।

क्योंकि पक्की सतहें गंदगी को छिपा नहीं सकतीं।

यही अंतर है कल्पनाशीलता और उत्तरदायित्व के बीच। किसी धरोहर को सुंदर बनाना एक कलात्मक कार्य हो सकता है, पर उसे संजोकर रखना, उसकी गरिमा को बनाए रखना—वह नैतिक जिम्मेदारी है। जब तक यह दोनों साथ नहीं चलेंगे, तब तक कोई भी परियोजना, चाहे वह कितनी भी सुंदर क्यों न दिखे, अधूरी ही मानी जाएगी।

विकास की परिभाषा अगर केवल निर्माण तक सीमित रह जाए, तो यह केवल ढाँचा होगा—रूह नहीं।

ज़रूरत है उस सोच की जो निर्माण से पहले आत्मा की चिंता करे। जो समझे कि सौंदर्य केवल आँखों का नहीं, मन और आत्मा का भी होता है। और तब जाकर ही कोई रचना अमर बनती है—जैसे ताजमहल, जैसे कोणार्क का सूर्य मंदिर, या जैसे वह मिट्टी की छत वाला घर जिसमें दादी की कहानियाँ और मां के हाथों का खाना बसता था।