शर्मसार मानवता
पहलगाम की शान्त वादियाँ,
शर्मसार मानवता।
भून दिया गोली से उनको,
आतंकी कायरता।।
चीखें गूँजी घाटी में फिर,
खेल हुआ यह सारा ।
कौन कहाँ से आए थे वो,
धर्म पूछकर मारा।
बाँट दिया इंसानों को क्यों,
धर्म बनी दीवारे ।
घाटी में बर्बरता देखी,
आँखों में अंगारे ।।
कैसे कह दें स्वर्ग बना ये,
देखी हैं तस्वीरें ।
भीग गई जब लहू में घाटी,
बिखर गई तकदीरें ।।
कब तक अब हम चुप बैठेंगे,
जागो भारतवासी ।
एक-एक को ढूंढ पकड़कर,
कर उनकी नक्कासी ।।
आतंकी का धर्म नहीं है,
अधम भाव है प्यारा ।
नफरत है अब और नहीं कुछ,
लालच से है यारा ।।
जगत ठगा सा देख रह गया,
उजड़ी पल में घाटी।
माँ की ममता,गर्व पिता का,
सब कुछ क्षण में माटी ।।
ताबूतों में सिमटे सपने ,
सिसक रहे थे सारे ।
कंगन गुमसुम, कौन बताए ,
क्यों बन गए सितारे ।।
आज तिरंगे में लिपटे हैं,
भारत माँ के प्यारे।
कल तक जो हँसते थे जग में,
दीपक घर उजियारे ।।
घर-आँगन में दीप जले थे,
मंगल गान सुनाए ।
बच्चों की संगत में हँसते,
दिल को बहुत रुलाए ।।
रचनाकार
डॉ. छाया शर्मा
अजमेर (राजस्थान)
प्रस्तुति