झूलते रहने वाले फ्लेक्स!

झूलते रहने वाले फ्लेक्स!

भूमिका

(प्रशासन, आयोजकों और आम जनता के बीच समझ की एक पहल)

किसी शहर में जब कोई आयोजन होता है, तो वह केवल एक संस्था या समूह की गतिविधि नहीं होती – वह पूरे शहर की धड़कन बन जाती है। सड़कों पर पोस्टर, फ्लेक्स और बैनरों के ज़रिए आयोजन का प्रचार-प्रसार होता है, जो शहर की रौनक में चार चाँद लगाता है। पर यह रौनक तब फीकी पड़ जाती है जब वही फ्लेक्स कार्यक्रम के बाद भी महीनों तक झूलते रहते हैं, भद्दे और उपेक्षित से – जैसे किसी ने शहर की दीवारों पर यादों का बोझ छोड़ दिया हो।

यह लेख एक ऐसे ही सामाजिक पहलू को लेकर सामने आया है, जो देखने में छोटा लगे, पर वास्तव में शहर की व्यवस्था, सौंदर्य और ज़िम्मेदारी से जुड़ा हुआ है। मेरठ शहर की एक मिसाल ने यह सोचने पर मजबूर किया कि जब कोई कार्यक्रम हुआ ही नहीं और फिर भी उसके फ्लेक्स शहर भर में लगे हैं, तो यह किसकी जिम्मेदारी है? आयोजकों की? प्रशासन की? या फिर हम सभी नागरिकों की?

यह भूमिका इसी सोच को लेकर लिखी गई है – कि प्रशासन, आयोजक, और जनता* तीनों के बीच एक पारदर्शी और सहयोगी रिश्ता स्थापित हो।

प्रशासन केवल नियम बनाने और डंडा चलाने वाला न बने, बल्कि जागरूकता फैलाने और समयबद्ध व्यवस्था सुनिश्चित करने वाला साथी बने।

आयोजक केवल प्रचार तक सीमित न रहें, बल्कि यह समझें कि शहर की सुंदरता की जिम्मेदारी भी उनकी है।

और! जनता केवल दर्शक बनकर न रहे, बल्कि जागरूक नागरिक की भूमिका निभाए – सवाल करे, सजग रहे और सफाई व व्यवस्था में अपनी भागीदारी निभाए।

यह लेख किसी को कठघरे में खड़ा करने के लिए नहीं, बल्कि तीनों पक्षों के बीच संतुलन और समझ की एक ज़मीन तैयार करने के लिए लिखा गया है।

ताकि हमारा शहर केवल आयोजन में नहीं, बल्कि आयोजन के बाद भी सुंदर और सजीव बना रहे।

क्योंकि शहर हम सबका है – और इसकी तस्वीर भी हम सबकी

ज़िम्मेदारी।

झूलते रहने वाले फ्लेक्स!

आम आदमी की सोच से जुड़ा है मामला

किसी भी शहर में जब कोई बड़ा आयोजन होता है, तो रास्तों के किनारे बड़े-बड़े रंग-बिरंगे फ्लेक्स बैनर लग जाते हैं। कहीं स्वागत संदेश, कहीं वक्ताओं की तस्वीरें, तो कहीं आयोजन की तारीखें। ये बैनर हर किसी का ध्यान खींचते हैं और शहर का माहौल ‘आयोजनमय’ कर देते हैं।

पर क्या आपने कभी गौर किया है कि कई बार ये फ्लेक्स तब भी लगे रहते हैं जब कार्यक्रम हो चुका हो या फिर हुआ ही नहीं होता?

और अगर कार्यक्रम हो भी गया हो, तो महीनों बाद तक भी ये बैनर वैसे ही सड़कों के किनारे झूलते रहते हैं – फेडेड और फटे हुए, जैसे कोई भूला हुआ वादा।

मेरठ में क्या हुआ?

हाल ही में मेरठ शहर में एक ऐसा ही मामला सामने आया। भारत-पाक संबंधों में तनाव के कारण एक आयोजन को प्रशासन से अनुमति नहीं मिल सकी, और वह कार्यक्रम हुआ ही नहीं। लेकिन उस कार्यक्रम से जुड़े फ्लेक्स आज भी शहर की दीवारों, बिजली के खंभों और सड़कों पर लटके हुए हैं – जैसे वो पूछ रहे हों, “अब हमें कौन उतारेगा?”

आखिर क्यों झूलते रहते हैं ये फ्लेक्स?

दूसरा विज्ञापनदाता न मिलना

कई बार आयोजकों ने जगह किराए पर ली होती है या खुद फ्लेक्स लगवाए होते हैं, लेकिन कार्यक्रम के बाद किसी और को उस जगह पर विज्ञापन देने की जरूरत नहीं पड़ती। तो नया फ्लेक्स ना लगने से पुराना वहीं लटका रह जाता है।

आयोजकों की ‘सोची-समझी’ चतुराई

कुछ आयोजक इसे प्रचार का एक तरीका मानते हैं। भले ही कार्यक्रम न हुआ हो, पर उनका नाम, चेहरा और संस्था का प्रचार तो शहर में घूम ही रहा है।

मतलब

“आयोजन गया भाड़ में, पब्लिसिटी मिलती रहे।”

प्रशासन की ढिलाई

शहर की सफाई और व्यवस्था की ज़िम्मेदारी स्थानीय प्रशासन की होती है। पर जब ये फ्लेक्स हटाने की जिम्मेदारी कोई नहीं लेता, तो वे वैसे ही मौसम झेलते रहते हैं – धूप में सूखते हैं, बारिश में भीगते हैं, और हवा में फटते हैं।

एक आम नागरिक का प्रश्न…

हम जैसे आम लोग जब रोज़ इन झूलते फ्लेक्स को देखते हैं, तो मन में सवाल उठते हैं –

क्या शहर की सुंदरता और साफ-सफाई की जिम्मेदारी सिर्फ नगर निगम की है?

क्या आयोजकों को खुद नहीं सोचना चाहिए कि अब ये पोस्टर हटाने का समय आ गया है?

और जब कार्यक्रम हुआ ही नहीं, तो क्या ये ‘झूठा प्रचार’ नहीं है?

समाधान क्या हो?

* फ्लेक्स लगाने से पहले अनुमति के साथ फ्लेक्स हटाने की जिम्मेदारी तय हो।

* एक तय समय सीमा के अंदर फ्लेक्स हटाना अनिवार्य किया जाए।

* आयोजक को बाध्य किया जाए कि यदि फ्लेक्स तय समय के बाद ना लगे रहें।

* शहरवासियों में भी जागरूकता लाई जाए – क्योंकि शहर हमारा है।

अंत में…

फ्लेक्स केवल एक पोस्टर नहीं होता – वह शहर की छवि का एक हिस्सा होता है। आयोजन भले ही एक दिन का हो, पर उसके निशान महीनों तक शहर का चेहरा बिगाड़ सकते हैं।

जरूरत है सोच बदलने की – आयोजकों की, प्रशासन की और हमारी भी।

ताकि हमारा शहर दिखे साफ-सुथरा, सजीव और सुसंस्कृत।

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