।।अंतर द्वंद्व।।
हर पल हर दिन मिलती है नई चुनौतियां सामने
सहर्ष आगे बढ़ जाता हूँ मैं रोज ही उन्हें थामने।
लड़ना पड़ता है फिर खुद को खुद से।
आगे बढ़ना पड़ता है अपनी ही ज़िद से।
हर पल द्वंद्व चलता रहता है मन ही मन में।
पर साहस टटोलना पड़ता है एकान्त निर्जन में।
क्षणिक वासना झकझोरती है।
अपनी ओर बार बार मोड़ती है।
आदमी कब चुनौतियों से लड़ना चाहता है।
बस वो तो एक दूजे से भिड़ना चाहता है।
सतरंगी दुनिया में श्वेत प्रकाश फिर राह दिखाता है
अंधकार को हर जीना सिखाता है।
दोहे
होली खेली खून से, आजादी के काज।
उन वीरों पर हमें, सदा रहेगा नाज।।
हँसते जो फांसी चढे, इंकलाब मुख बोल।
उन वीरों को था पता, आजादी का मोल।।
लड़ते चाहे मर गये, आजादी के वीर।
खत्म जड़ों से कर गये, भारत माँ की पीर।।
आजादी के मायने, बदल गये हैं आज।
उलटे सीधे हो रहे, इसी ओट में काज।।
गोरों ने लूटा हमें, गये सभी हैं जान।
लूट मची जो आज भी, नहीं रहे पहचान।।
आजादी के साथ में, मिले हमें अधिकार।
जिससे यारों देश की, बनती है सरकार।।
दोहे
खोकर अब संवेदना, बिखर रहा परिवार।
कलयुग के इस दौर में, बदला जीवन सार।।
बची नहीं संवेदना, नर-नारी में आज।
दया धर्म को छोड़कर, छोड़ी तन की लाज।।
दिल में जब संवेदना, आपस में था प्यार ।
बाँटते थे दुःख-दर्द को, अपने सबको धार।।
अपनों को अपना कहे, दूजों से परहेज़ ।
यही जाकर टूट रही, रिश्तों की ये नेज।।
(नेज अर्थात् कुएं से पानी निकालने की रस्सी।)
रखा करो संवेदना, इक दूजे के साथ।
जीवन के दु:ख दर्द में, कई उठेंगे हाथ।।
दोहे
आजादी के पर्व पर, है हमको अभिमान।
पर हमको कैसे मिली, हो इसका भी भान।।
लिये तिरंगा हाथ में, कूद पड़े थे वीर।
आजादी तब मिली, जब हुए हम अधीर।।
आजादी प्यारी उसे, जो समझे पर पीर।
संकट सारे पार कर, पहुँचे सागर तीर।।
आजादी के साथ में, रखो कर्तव्य ध्यान।
आजादी के मोल को, लो पहले पहचान।।
दोहे
समझो पीड़ा कलम की, फिर रचना तुम छंद।
सच बोलना चाह रही, मतकर मुँह को बंद।।
लिखो प्रेम की बात भी, संग लिखो पर पीर।
आँखों देखी भी लिखो, लिखो संत का धीर।।
पर पीड़ा को जानकर, करते जन जो दूर।
वही कहाते असल में, इस दुनिया के शूर।।
शब्दों की तलवार से, होता जब है घाव।
पीर घनेरी होत है, डूबे जीवन नाव।
रचनाकार
श्योराज बम्बेरवाल ‘सेवक’
मालपुरा
प्रस्तुति