समाज और राजनीति में जातीय चिंतन

समाज और राजनीति में जातीय चिंतन

आवश्यक विभाजन

भारतीय समाज में जाति एक संवेदनशील और स्थायी मुद्दा रही है। समाज की संरचना, रिश्तों की बुनावट और सामाजिक न्याय की बहसों में यह बार-बार सामने आती है। किंतु समस्या तब गंभीर हो जाती है जब राजनीति जातीय पृष्ठभूमि को आधार बनाकर सत्ता तक पहुँचने का माध्यम बना लेती है। समाज जातीय प्रश्नों पर चिंता करता है, वहीं राजनीति जातीय समीकरणों से सत्ता साधती है। यही कारण है कि समाज और राजनीति के बीच संतुलन बनाए रखने हेतु इन्हें अलग रखना आवश्यक है।

समाज की चिंता और राजनीति का स्वार्थ

समाजसेवी जातीय मुद्दों पर इसलिए चिंतित रहते हैं क्योंकि उनका जुड़ाव सीधे आम जनता की कठिनाइयों से होता है। वे शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और बराबरी के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाते हैं।
इसके विपरीत, राजनेता जातीय पहचान का उपयोग चुनाव जीतने के साधन के रूप में करते हैं। टिकट बंटवारे से लेकर वोट माँगने तक जातीय गणित प्रमुख हो जाता है। चुनाव जीतने के बाद वही नेता प्रायः अपने परिवार और निजी हितों की सुरक्षा में लग जाते हैं। इस प्रकार समाज की वास्तविक समस्याएँ अधूरी रह जाती हैं।

समाज और राजनीति के मिश्रण के दुष्परिणाम

यदि समाज और राजनीति दोनों ही जातीय मुद्दों के इर्द-गिर्द चलें तो परिणाम यह होता है कि:

1. सामाजिक एकता कमजोर होती है और जातीय बंटवारा गहराता है।
2. जनता केवल चुनावी वादों का शिकार बनती है, वास्तविक सुधार नहीं होते।
3. राजनीति समाज की भावनाओं का इस्तेमाल करती है, परंतु समाज को स्थायी समाधान नहीं मिलता।

दृष्टांत

डॉ. भीमराव आंबेडकर इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने जातीय असमानता को समझते हुए समाज को शिक्षित, संगठित और संघर्षशील बनने का संदेश दिया। राजनीति में रहते हुए भी उन्होंने समाज सुधार को सर्वोपरि रखा।
इसके विपरीत आज अनेक ऐसे नेता देखने को मिलते हैं जिन्होंने केवल जातीय आधार पर सत्ता प्राप्त की, लेकिन सत्ता में पहुँचने के बाद समाज की समस्याओं पर ठोस पहल करने के बजाय पारिवारिक और निजी लाभ को ही प्राथमिकता दी।

क्यों आवश्यक है समाज और राजनीति को अलग रखना?

* समाज का उद्देश्य मानवीय मूल्यों, समानता, शिक्षा और कल्याणकारी प्रयासों को बढ़ावा देना है।
* राजनीति का मूल उद्देश्य सत्ता प्राप्त करना और उसे बनाए रखना है।
* यदि समाज राजनीति का उपकरण बन जाएगा तो जातीय प्रश्न केवल वोट बैंक की राजनीति तक सिमट कर रह जाएँगे।
* लेकिन यदि समाज स्वतंत्र रहकर राजनीति की निगरानी करेगा, तो नेताओं को जवाबदेह ठहराना संभव होगा और समाज में वास्तविक सुधार लाए जा सकेंगे।

निष्कर्ष

जातीय प्रश्न समाज की चिंता का विषय हैं, राजनीति का औजार नहीं। जब समाजसेवी जातीय समस्याओं पर काम करते हैं तो उद्देश्य सामाजिक न्याय और समानता होता है, पर जब राजनेता जाति का सहारा लेते हैं तो मकसद सत्ता की प्राप्ति भर होता है। अतः समाज और राजनीति को अलग रखना आवश्यक है ताकि जातीय मुद्दे चुनावी हथकंडे न बनें, बल्कि समाज में स्थायी सुधार और समानता के मार्ग प्रशस्त करें।