डॉ. अशोक चौधरी का संबोधन
“सम्मानित साथियो,
आज मैं आप सबके सामने खड़ा हूँ और दिल से कहना चाहता हूँ—हमारा भी एक ज़माना था…
जब हम अपनी ज़िंदगी के आईने में झाँकते हैं, तो एक पूरी पीढ़ी की तस्वीर उभर आती है। यह वही पीढ़ी है जो 1960 से 1980 के बीच जन्मी। हम वो लोग हैं जिन्होंने अब जीवन के पैंतालीस–पचास साल पार कर लिए हैं और धीरे–धीरे साठ–सत्तर की ओर बढ़ रहे हैं।
हम उस दौर के गवाह हैं, जब लिखना स्याही–कलम और स्लेट से शुरू हुआ था और आज का समय स्मार्टफोन और लैपटॉप तक पहुँच गया है। यानी हम एक पुल हैं—बीते समय और आज के तेज़ दौर के बीच का पुल।
बचपन की मासूमियत
हमारे लिए साइकिल रखना किसी सपने जैसा था। लेकिन दोस्तों की साइकिल पर डंडे या कैरियर पर बैठ जाना—मानो पूरी दुनिया जीत लेने जैसा सुख देता था।
कुकर की रिंग्स, पुराने टायर घुमाना, पेड़ों से आम तोड़ना, ज़मीन में गाड़ी सलाई से खेलना… यही हमारे खेल थे।
मोहल्ले का हर घर अपना घर था। दोस्त की माँ का बनाया खाना अपना ही लगता और उसके पिताजी की डाँट भी अजीब-सा अपनापन लिए होती।
और साथियो, इस बचपन के संस्कारों में खेतिहर जातियों का मौलिक योगदान रहा। मिट्टी से जुड़े ये संस्कार हमें श्रम की गरिमा, सहकारिता और सामूहिकता का अर्थ सिखाते थे। खेत–खलिहान में बँटे हुए काम हमें यह एहसास दिलाते थे कि जीवन की बुनियाद मेहनत है और मेहनत ही असली पूँजी है।
शिक्षा और संस्कार
हमारे बचपन में “प्ले–स्कूल” जैसा कोई कॉन्सेप्ट नहीं था। छह–सात साल की उम्र पूरी हुई नहीं कि सीधे स्कूल भेज दिए जाते।
आज की तरह प्रतिशत की दौड़ नहीं थी। हमारे लिए बस इतना मायने रखता था कि पास हो गए या फेल।
ट्यूशन लेना तो शर्मनाक माना जाता था। किताबों में मोरपंख रखना और यह विश्वास रखना कि पढ़ाई में तेज़ हो जाएँगे—यही हमारी मासूम मान्यताएँ थीं।
शिक्षकों की डाँट–फटकार, यहाँ तक कि मार भी बुरी नहीं लगती थी। दशहरे पर वही गुरु हमारे लिए पूजनीय बन जाते।
और इसी में याद आता है उन समर्पित शिक्षकों का योगदान, जो अगली पांत के सामान्य अध्यापक होकर भी बालकों को निःशुल्क अतिरिक्त समय दिया करते थे। उनका उद्देश्य केवल शिक्षा देना ही नहीं, बल्कि बच्चे के भविष्य को गढ़ना भी होता था।
इसी के साथ समाज सुधारों के क्षेत्र में भी अनेक व्यक्तित्व दृढ़ता के साथ खड़े रहे। उन्होंने कुरीतियों को चुनौती दी और समाज को सही राह दिखाने में संलिप्त रहे। हमारी पीढ़ी उन सुधारकों की भी ऋणी है।
मनोरंजन और कला
साथियो, हमने टेप रिकॉर्डर और ट्रांजिस्टर का रोमांच देखा। टीवी धीरे–धीरे घरों में पहुँचा। किराए पर VCR लाकर मोहल्ले भर के साथ फिल्म देखना—यह अपने आप में त्यौहार से कम नहीं था।
कपिल देव, सुनील गावस्कर, पीट सम्प्रस, महेश भूपति—इनके खेल को हमने जी–भर कर देखा।
राजकपूर से लेकर अमिताभ और फिर शाहरुख–सलमान तक, माधुरी की मुस्कान से लेकर गोविंदा की कॉमेडी तक—सबने हमारे दिलों पर राज किया।
और पंकज उधास की ग़ज़ल सुनते हुए आँखें नम होना, दीवाली की पाँच दिन की कहानी सुनना—यही हमारी भावनाओं का संसार था।
जीवन की सरलता
साथियो, हमने कभी पॉकेट मनी नहीं माँगी। हमारी ज़रूरतें छोटी थीं और परिवार सहजता से पूरी कर देता था।
“I Love You” कहना नहीं आता था, लेकिन मन में प्रेम और सम्मान की गहराई थी।
कपड़ों की सिलवटें हमें परेशान नहीं करती थीं और रिश्तों में औपचारिकता निभाना हमें आती ही नहीं थी।
छह महीने में एक बार फरसाण या मुरमुरे मिल जाना भी त्योहार जैसा लगता था।
हमारे राजनीतिक जीवन के सामने भी उदाहरण थे—चौधरी चरण सिंह और राजेश पायलट जैसे नेता। ये वे राजनीतिज्ञ थे जिन्होंने अपने क्षेत्र के दुष्प्रभावों से स्वयं को मुक्त रखते हुए राजनीति करने का प्रण लिया। उनके आचरण ने हमें सिखाया कि राजनीति भी सरलता, ईमानदारी और जनसेवा का माध्यम हो सकती है।
आज के संदर्भ में
अब जब हम अपने बच्चों और नाती–पोतों को मोबाइल की स्क्रीन में खोया देखते हैं, तो हमें अपनी गलियों की क्रिकेट, दिवाली की फुलझड़ियाँ और दोस्तों की साइकिल याद आती है।
हमारे समय की मासूमियत आज किताबों में दर्ज रह गई है। लेकिन उस दौर को जीना हमारे लिए सौभाग्य की बात है।
आज भी कुछ हस्तियाँ हमारे मार्गदर्शक बनकर खड़ी हैं—
कृषि क्षेत्र में पद्मश्री उपाधि प्राप्त सेठपाल सिंह, जो नई तकनीकों और गतिविधियों से किसानों को लगातार मार्गदर्शन दे रहे हैं।
शिक्षा क्षेत्र में ओमप्रकाश गांधी जी, जिन्होंने विशेष रूप से महिलाओं की शैक्षिक स्थिति को सुधारने का संकल्प लिया और उसे निरंतर निभा रहे हैं।
ये लोग हमारे समय की विरासत और आने वाली पीढ़ियों के लिए आशा की किरण हैं।
निष्कर्ष
साथियो, 1960 से 1980 के बीच जन्मी यह पीढ़ी शायद आखिरी ऐसी पीढ़ी है जिसने संघर्ष और सादगी को करीब से जिया। जिसने पुराने समय की मिठास भी देखी और नए समय की तेज़ी भी अपनाई।
और इसीलिए मैं पूरे गर्व के साथ कह सकता हूँ—
“हमारा भी एक ज़माना था… और वही ज़माना हमें जीने की ताक़त और आने वाली पीढ़ियों को सीख देने का संदेश दे गया।”
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