मुट्ठी

जब तू इस जग में आया था मुट्ठी बंधी हुई लाया था।
पता नहीं विधना के आगे क्या कसमें खाकर आया था।।
जग में आकर के मुट्ठी को खोल नहीं तू ढंग से पाया।
जो थोड़ी सी अगर खुली भी तो माया रख खूब दबाया।।
भेजा था ईश्वर ने ये कह मुट्ठी खोल धर्म सब करना।
धर्म कर्म सेवा करने में नहीं कभी भी पीछे हटना।
लेकिन तू तो भूल गया सब जो वादे कर के आया था।
पता नहीं विधना के आगे क्या कसमें खाकर आया था ॥ १।।
जब मुट्ठी खुलती मानव की तो वो दाता कहलाता है।
दीन दु:खी पीड़ित तन मन को हाथ खोलकर सहलाता है।
बन्द पड़ी मुट्ठी की रेखा हरदम सिकुड़ी ही रहती है।
रेखा में क्या लिखा विधि ने नहीं किसी से भी कहती है।।
हाथ खुलेगा तभी दिखेगा कैसा भाग्य लिखा लाया था।
पता नहीं विधना के आगे क्या कसमें खाकर आया था।।२।।
मुट्ठी बंद रही गर तेरी अंत समय में स्वयं खुलेगी।
क्यूँ नहीं पुण्य कर्म कर पाया बंद आँख भी तभी खुलेगी॥
विगत जन्म जो करी कमाई मुट्ठी में ही तू पायेगा।
वर्तमान में किये कर्म फल मुट्ठी में ही ले जायेगा॥
रहते वक्त खोल ले मुट्ठी पढ़ ले जो लिख कर आया था।
पता नहीं विधना के आगे क्या कसमें खाकर आया था।।३।।
मुट्ठी बंद खोल दी जिसने प्यार मान पाया इस जग में।
बाधा कोई आ नहीं पाई ईश्वर की कृपा से मग में।
मुट्ठी तो खुल ही जाती है खोल अभी या खोल बाद में।
यदि बाद में खुल पाई तो पछतायेगा ईश याद में ।।
मुट्ठी के संग मन भी खोलो जो न अब तक खुल पाया था।
पता नहीं विधना के आगे क्या कसमें खाकर आया था।।४।।
शुभ कामना

अनुजा श्रीमती डॉली डबराल जी के पावन जन्मदिन दिनांक 5 अक्टूबर 2025 पर उनके अग्रज ‘ कृष्ण ‘ की शत-शत बधाई
छोटी बहना जन्मदिवस पर देता ‘कृष्ण’ बधाई।
भैया को अच्छी लगती है बहन सदा मुस्काई।
मुस्कानों की अनुजा मेरी है एक अनुपम खान।
मुस्कानों में छुपा हुआ है महा अलौकिक ज्ञान!
आदर्शों से पूर्ण सदा ही डॉली जी को पाया।
कौन है ऐसा डॉली जी से मिलकर ना हरषाया।
डॉली जी ने छुआ स्वयं ही साहित्य जगत का अम्बर।
उनकी रक्षा करता हर पल अम्बर बैठा ईश्वर।
मनोकामना सभी पूर्ण हों लिखने और पढ़ने की।
नये-नये उपन्यास कविता नित नूतन गढ़ने की।
अखण्ड रहे सौभाग्य बहिन का शतवर्षी हो जीवन।
डॉली डॉली गाता पावे मेरे देश का जन जन।
कभी-कभी तन की पीड़ा जो
आकर तड़पाती है।
अस्पताल के चक्कर भी वो तुम से लगवाती है।
कभी ना कोई पीड़ा तुमको बहना मेरी घेरे।
स्वस्थ रहो जीवन भर कोई कष्ट न आवे नेरे।
कृष्ण
डॉ उषा झा की ‘छंद प्रभा’ पर कृष्ण के भाव
छंद प्रभा

छंदों की महारानी, उषा झा अनमोल।
मैं ना जानू छंद क्या, ज्ञानी सकता तोल।
छंद ज्ञान का ग्रन्थ है छंद प्रभा मकरंद।
उषा जी ने भर दिया, छंदों में आनन्द।
मात्रिक वर्णिक छंद का भर डाला है ज्ञान।
कहीं ‘अहीर’ अरु ‘तांडव’ का है लिखा विधान।
लिखी उल्लाला लीला, और लिखा आनन्द।
लीलाधर अरु नीलिमा’ विधि है तोमर छंद।
मात्रिक वर्णिक छंद की, दिखती है बौछार।
कहीं सुलक्षण चण्डिका, की ही बही बयार।
छंदों का एक नगर ही, ऊषा दिया बसाय।
जिज्ञासु छंद विधा का, पढ़-पढ़ ज्ञान बढ़ाय।
सभी विधा में लिखे हैं, छंदों वाले गीत।
न्याय किया हर छंद से, पूर्ण निभाई रीत।
दर्श अयोध्या तीर्थ का, रेणु दिया कराय।
मात-पितु बद्री विशाल चांदन दी बिखराय।
देवी माँ के हाथ में, उठवा दी तलवार ।
रही उमरिया भाग है, ये मीठी ललकार।
नेह है घनश्याम का, मुरली की है तान।
सुनाई पुकार देश की, श्रमिकी कष्ट तमाम।
आरा धन माँ शारदे, भारत माँ का गान।
जब-जब गलता हिम शिखर रोता है इन्सान ।
छंदों की हर विधा में, गाये हैं भगवान।
पुण्य कर्म जो मान दे. बतलाया है दान।
विधा गीतिका छंद में गाया है श्रृंगार।
तन देवालय बन गया वन्दन का आधार।
छंद प्रभा में हो रही, छंदों की बरसात।
ये मधुमासी शहद सम, चखे वही रस पात।
उषा झा तो लगी हैं छंदों की प्रभात।
बन उषा की किरण छंद, झर रहे ज्यों प्रपात।
कितने ही रोचक विषय, दिये छंद में बांध।
उषा की पावन ललक, रही लक्ष्य को साध।
हर कविता में छंद की लिख डाली प्रकार।
कविताओं के भाव भी कर डाले साकार।
डॉक्टर रेणू ने किया छंद छंद से न्याय।
हर कविता को उषा जी, लगती रही सुनाय।
संस्कार की झलक भी, रेणु में विद्यमान।
गीतों में भी ललक है, पाने को भगवान।
विरह मिलन के संग ही, राजनीति की लूट।
पाँसा यहाँ पर फेंकता, वोट हेतु ही झूठ।
उषा रेणु में दिखा, पावन नवल प्रवाह।
आगे बढ़ने की लगी मन में चाह अथाह।
कुछ छंद विधा
उषा जी ने छंदों की वाटिका मोहक लगाई।
वाटिका में पुष्प बन छंद झूमते देते दिखाई।
मात्रिक वर्णिक तरु पर ये छंद शोभा पा रहे हैं।
हर विधा में छंद लगते गीत अपना गा रहे हैं।
पुष्प रूपी छंद सब ही कर रहे लीला निराली।
अहीर तांडव ईश तोमर भर रहे आनन्द प्याली।
उल्लाला लीलाधर नीलिमा करती हैं समीक्षा।
चंडिका मधुमालती सखी मधु हैं सुलक्षण मुक्ता ।
कीर्ति चंबोला जयकारी बिन्दु व स्वातिका गुपाल।
महाश्रृंगार श्रृंगार संस्कारी शक्ति का कमाल।
सगुन चौपाई पुरारि मुदित विज्ञात आनंद अरुण।
‘अरिल’ सिन्धु वाचिक सुखदा महामाया के निजी गुण।
‘रास बिहारी’ ‘ मंगलमाया’ ‘रजनी’ निश्चल आधार।
दिग्पाल निर्मला अमृत रोला व सारस रस धार।
कुण्डलिनी गंगनांगना कामरूप गीतिका गीत।
शुद्धगीता सरसी रमा मनमनोरम शंकर मीत ।
मरहटा विधाता विष्णुपद कुकुंभ लावणी शोक हर।
नाटक आल्हा आदि छंद विधा बहुत ही सुन्दर।
वर्णिक छंद विधा भी अनेक भरी पड़ी भरपूर।
उषा जी ने सभी विधाओं का बरसाया नूर।
समानिका शंखनादि और सोमराजी यम गान।
विमोहा ललिता मधुमति मदलेखा प्रमाणिका वितान।
गजगति युक्ता चित्रपदा पाञ्चजन्य वर्ष शुभोदर।
धोधक डोली ‘मोटनक’ इन्द्रवज्रा राधा भीम कलाधर।
भालचन्द्र अनुराग गिरिजा प्रतिभा मालिनी चामर।
द्रुत विलंबित भुजंग प्रियात धोधक टोटक लक्ष्मीधर।
विधा घनाक्षरी कितनी ही का रेणु किया बखान।
धन्य धन्य हैं उषा जी और धन्य लेखनी ज्ञान ।
दोहे
लिखी जो उषा जी विधा, श्रम दिखता घनघोर।
उनके लेखन में सदा, ज्ञान ध्यान का जोर।
शत्याधिक वर्षी बनो, करो अनूठे काम।
बने रहें शंभू कुमार उषा के घनश्याम।
‘कृष्ण’ कामना है यही, खिल-खिल उषा जाय।
नित नूतन रचना करें, कृपा शारदे पायें।
कृष्ण
20.9.25
क्षमा

क्षमा मांगने या देने का भाव कठिन मानव में पाया।
क्षमा मांगने या देने में अंह भाव देखा टकराया।
कोई भी मानव हो उससे कभी-कभी गलती हो जाती।
ऐसा लगता उस मानव की बुद्धि ही कहीं पर खो जाती।
अपने या दूजे जन प्रति यदि कर्म कोई गलत किया है।
अपनी गलती होने पर भी दूजे को ही दोष दिया है।
लेकिन लगता जैसे उससे हृदय नहीं तनिक पछताया?
क्षमा मांगने या देने में अंह भाव देखा टकराया।।१।।
गलती करके क्षमा मांगना मानव का आभूषण होता।
किन्तु क्षमा मांगने में वो अहं सिन्धु में खाता गोता।
इससे ही टकराहट बढ़ती बातें बढ़ी चली जाती हैं।
गलती करने पर भी उसकी बाँहें सदा चढ़ी पाती हैं।
लेकिन क्षमा मांगते ही सब टकराहट को सिमटी पाया।
क्षमा मांगने या देने में अंह भाव देखा टकराया।।२।।
क्षमा मांगने वाले से तो बड़ा क्षमा का दाता होता।
जिसने पाई क्षमा सदा वो ऋणी क्षमा दाता का होता।
लेकिन क्षमा किया है जिसने अहं भाव उसमें आ जाता।
अहं भाव प्रदर्शित करते देखा वो न कभी लजाता।
इसीलिए ही क्षमा दान का पुण्य नहीं उसको मिल पाता।
क्षमा मांगने या देने में अंह भाव देखा टकराया।।३।।
क्षमा मांगने या देने में छोटा-बड़ा कोई नहीं होता।
एक दूजे के लिये सदा को प्रेम भाव हृदय में होता।
क्षमा मांगना या देना तो एक दूजे का बैर मिटाता।
प्रेम भावना भटक गयी जो उसको उत्तम राह दिखाता।
क्षमा मांगने या देने को संतजनों ने पुण्य बताया।
क्षमा मांगने या देने में अंह भाव देखा टकराया॥४।।
जीभ

मात्र जीभ ही मानव का तो जीवन भर है साथ निभाती।
जन्म साथ मानव के आती मृत्यु संग ही है जल जाती।
वृद्धावस्था आते-आते मानव के अंग साथ छोड़ते।
समय साथ ही अंग टूटते या आकर के रोग तोड़ते।
चलना-फिरना हिलना-डुलना मानव का दूभर हो जाता।
लेकिन जीभ मात्र अंग ऐसा जैसा लाया वैसा पाता।
चूंकि जीभ मात्र है कोमल नहीं लचीलापन खो पाती।
जन्म साथ मानव के आती मृत्यु संग ही है जल जाती।।।१।।
बेबस पड़े हुये मानव की जिह्वा कतर-कतर चलती है।
उम्र भले ही ढलती जाये जिह्वा नहीं बिलकुल ढलती है।
जीभ भले हो कितनी कोमल पर जब चलती रुक न पाती।
कभी-कभी तो जीभ मात्र ही युद्ध भंयकर है करवाती।
महाभारत की वजह जीभ थी सदा युद्ध की याद दिलाती।
जन्म साथ मानव के आती मृत्यु संग ही है जल जाती।।।२।।
नहीं जीभ सा मृदुल कोई और न कोई इस सा कर्कश।
घर-घर में झगड़े इस से ही मानव खुद हो जाता बेबस।
मेल करा दे भेद करा दे ये चाहे तो सिर फ़ुड़वा दे।
इसकी महिमा कहाँ तक गाँऊ चाहे तो वनवास करा दे।
पर इस सा ना कोई हितैषी जब मिठास इसमें बढ़ जाती।
जन्म साथ मानव के आती मृत्यु संग ही है जल जाती।।।३।।
मीठी और कड़वी वाणी का स्रोत यही जिह्वा होती है।
अपनों तक को नहीं छोड़ती जब भी यह आपा खोती है।
कोमल सृजन ये ईश्वर का मधु रस ही इससे बरसाओ।
कर्कशता के गीत न गाकर गीत मधुर ही इससे गाओ।
ध्येय जीभ का कोमलता है भूल मनुजता इसको जाती।
जन्म साथ मानव के आती मृत्यु संग ही है जल जाती॥४।।
मानव तन के अंग सभी ही धीरे-धीरे साथ छोड़ते।
कमी छूटते स्वाभाविक हैं पर दूजे भी दिखे तोड़ते।
अंग कोई भी टूटे फूटे जीभ नहीं तजती कोमलता।
टूट बिखर जाता कैड़ापन पर जल सी रहती मृदुलता।
जीभ बड़ी सीधी होती है जिधर चाहते ये मुड़ जाती।
जन्म साथ मानव के आती मृत्यु संग ही है जल जाती।।।५।।
मित्रता

पूर्व जन्म के संबंधों का प्रतिफ़ल होती सदा मित्रता।
एक दूजे को आकर्षित ये करती पाई मात्र मित्रता।
होती जो प्रगाढ़ मित्रता जन्मों से चलती आती है।
संस्कार जो पूर्व जन्म के महक ना उसकी मिट पाती है।
जब होता निःस्वार्थ भाव तब सदा मित्रता आगे बढ़ती।
धरती पर रहकर भी उसकी ऊँचाई अम्बर तक चढ़ती।
जो मन को प्रफुल्लित कर दे उत्तम होती वही मित्रता ।
एक दूजे को आकर्षित ये करती पाई मात्र मित्रता॥१।।
जिसमें स्वार्थ भरा होता है नहीं मित्रता वो चल पाती।
जो भी मित्र स्वार्थी होता शीघ्र पोल उसकी खुल जाती।
मित्र अगर धोखा देता है वो होता है सदा कलंकित।
सदा मित्रता अमृत रस से वो ही रह जाता है वंचित।
जीवन के हर दु:खी समय पर आंकी जाती सदा मित्रता।
एक दूजे को आकर्षित ये करती पाई मात्र मित्रता॥२।।
सुखी और सम्पन्न व्यक्ति से सभी चाहते होय मित्रता।
पर वो ही जब विपन्न गया हो याद न आये उसे मित्रता।
मित्र हृदय के भावों को तो पल में सच्चा मित्र आंकता।
वो ही केवल अंतर्मन में सदा मित्र के मिला झांकता।
हृदय के भारी बोझे को हल्का करती सदा मित्रता।
एक दूजे को आकर्षित ये करती पाई मात्र मित्रता।।३।।
मित्र बने सुग्रीव राम के जीत लिया लंका का रावण।
मित्र बनाकर श्रीराम को तजा विभीषण भैया रावण।
मित्र बनाओ, बनो कभी तो तन मन धन से साथ निभाओ।
कभी मित्रता को धोखा दे पाप कर्म ये नहीं कमाओ।
अमूल्य निधि जीवन की होती मानव के ये सदा मित्रता।
एक दूजे को आकर्षित ये करती पाई मात्र मित्रता।।४।।
आदर्श मित्रता कृष्ण सुदामा दिखा अलौकिक प्यार मनोहर।
बना के राजा श्रीकृष्ण ने लई सुदामा की पीड़ा हर।
बड़ा या छोटा मित्र न होता केवल मित्र मित्र होता है।
सदा हंसे वो मित्र खुशी में दुःखी मित्र के संग रोता है।
जिन मित्रों में त्याग भावना टिकती जग़ में वही मित्रता।
एक दूजे को आकर्षित ये करती पाई मात्र मित्रता।।५।।
मित्र मेरा भी देशराज है बालेपन से साथ रहा है।
मित्र नहीं हम भाई सम हैं हर सुख दु:ख में साथ रहा है।
नवल नवल से मित्र नवल हैं राजीव बनकर सदा महकते।
सदा खनकती हंसी संग वो सेवा करके सदा चहकते।
यदि हृदय में स्वार्थ भरा है पल दो पल को रहे मित्रता।
एक दूजे को आकर्षित ये करती पाई मात्र मित्रता।।६।।

