खेतिहर जातियाँ
साहस की परंपरा और सोच का द्वंद्व
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में खेतिहर जातियों की भूमिका अक्सर अनदेखी रह गई, जबकि यह वही वर्ग था जिसने साधारण जीवन जीते हुए असाधारण संघर्ष किए। धरती से जुड़ी मेहनत, आत्मनिर्भरता और सामूहिक चेतना ने उन्हें न केवल जीवन की कठिनाइयों से जूझना सिखाया, बल्कि औपनिवेशिक दमन के सामने भी खड़े होने का साहस दिया। साहस उनके स्वभाव का मौलिक गुण था—वे बिना बड़े राजनीतिक मंच या औपचारिक नेतृत्व के भी अन्याय के विरुद्ध उठ खड़े हुए।
इस साहस का एक जीवंत उदाहरण गुर्जर समुदाय है, जिसने अपनी मानसिक सरलता और आत्मीयता को कभी कमजोरी नहीं बनने दिया। धन सिंह गुर्जर, गंगा नंबरदार और सैया गुर्जर जैसे वीरों ने छोटे-छोटे गाँवों से लोगों को संगठित किया और अंग्रेजी शासन के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका। सीमित संसाधनों में भी उन्होंने जिस जुझारूपन का परिचय दिया, वह खेतिहर जातियों की सामूहिक चेतना का प्रतीक था। उनकी वीरता लोकगीतों और सांस्कृतिक परंपराओं में आज भी अमर है, जो यह बताती है कि साहस और आत्मसम्मान ही असली पूंजी है।
किन्तु आज यही खेतिहर जातियाँ अनेक आशंकाओं और पूर्वाग्रहों से घिरती चली जा रही हैं। संकुचित सोच का यह दायरा उनकी सामूहिक शक्ति को कमजोर करता है। आपसी अविश्वास, असुरक्षा और तात्कालिक स्वार्थ उन्हें उस जड़ से काटते जा रहे हैं, जहाँ कभी साहस और एकजुटता की गहरी जड़ें थीं। यदि यह प्रवृत्ति बढ़ी तो वह परंपरा, जिसने कठिनाइयों के बीच अदम्य शक्ति दिखाई थी, आने वाली पीढ़ियों में केवल स्मृति बनकर रह जाएगी।
समय की मांग है कि खेतिहर जातियाँ अपनी विरासत से प्रेरणा लेकर आशंकाओं और पूर्वाग्रहों की दीवारें तोड़ें। इतिहास उन्हें यह सिखाता है कि वास्तविक ताक़त धन या साधनों में नहीं, बल्कि न्याय के लिए खड़े होने की मानसिकता और आपसी विश्वास में है। जब वे अपने साहस को पुनः जागृत करेंगी और सोच को व्यापक बनाएंगी, तभी वे भविष्य की चुनौतियों का डटकर सामना कर सकेंगी और अपने गौरवपूर्ण अतीत को वर्तमान और भविष्य की प्रेरणा बना सकेंगी।
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