दीपावली और महान शासक विक्रमादित्य
दीपावली और उज्जैन के महान चक्रवर्ती सम्राट वीर विक्रमादित्य (विक्रम सेन) के बीच गहरा ऐतिहासिक संबंध है। परंतु न जाने किन कारणों से हम भारतवासियों को इस तथ्य की जानकारी का अभाव हो गया है।
हम प्रायः बिना श्रम किए, सुनी-सुनाई बातों को ही सत्य मान लेते हैं, जबकि अतीत की जानकारी बिना प्रमाण और साक्ष्य के अंतिम सत्य नहीं कही जा सकती।
चलिए, दीपावली के इस शुभ अवसर पर आज हम अतीत की उस यात्रा पर चलते हैं, जब पश्चिम, उत्तर और मध्य भारत में शक राजाओं का परचम लहरा रहा था।
उसी काल में उज्जैन के राजा गंधर्व सेन और रानी वीरवती के यहाँ दो राजकुमारों का जन्म हुआ—
बड़े का नाम भृतहरी और छोटे का नाम विक्रम सेन रखा गया।
भृतहरी बचपन से ही अत्यंत धार्मिक और सन्यासी प्रवृत्ति के थे। उन्हें भगवान विष्णु की उपासना में विशेष लगाव था। दूसरी ओर, विक्रम सेन का व्यक्तित्व अद्वितीय था—उनके चेहरे पर सूर्य के समान तेज और आचरण में असाधारण बुद्धि की झलक थी। उन्हें ग्रह-नक्षत्रों का विलक्षण ज्ञान था, जिसके कारण लोग उन्हें किसी दैवी शक्ति का प्रतिनिधि मानने लगे थे।
अपनी कार्यकुशलता और न्यायप्रियता के कारण विक्रम सेन जनसाधारण के अत्यंत प्रिय हो गए।
राजा गंधर्व सेन की मृत्यु के पश्चात् बड़े पुत्र भृतहरी को राजगद्दी मिली, किंतु राज्य संचालन की वास्तविक जिम्मेदारी विक्रम सेन के कंधों पर ही थी।
एक बार, जब राजकुमार विक्रम सेन अपने नेतृत्व में शक राजा को पराजित कर उज्जैन लौटे, तो राजा भृतहरी ने उनका भव्य स्वागत किया और उसी अवसर पर स्वयं संन्यास ग्रहण करने की घोषणा कर दी।
संन्यास के पश्चात् भृतहरी हरिद्वार चले गए और तपस्या में लीन हो गए। कहा जाता है कि वे प्रतिदिन वहाँ गंगा आरती करते थे। आज भी हरिद्वार में भृतहरी मंदिर स्थित है, और उनके नाम पर उस घाट को हर की पौड़ी कहा जाता है—जहाँ आज भी प्रतिदिन गंगा आरती और विष्णु उपासना होती है।
भाई के संन्यास लेने के बाद नक्षत्र गणना के अनुसार कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को विक्रम सेन का राज्याभिषेक किया गया।
उसी दिन महान खगोलशास्त्री ज्योतिषाचार्य वराहमिहिर ने विक्रम संवत की शुरुआत की, जो ईसा से 57 वर्ष पूर्व आरंभ हुआ।
उत्तर भारत में विदेशी आक्रांताओं द्वारा अनेक ग्रंथ नष्ट कर दिए गए, जिसके कारण ज्ञान के अभाव में यहाँ लोग विक्रम संवत की शुरुआत चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से मानने लगे। किंतु नेपाल और दक्षिण भारत में आज भी इसका प्रारंभ कार्तिक शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से ही माना जाता है — जो ऐतिहासिक दृष्टि से अधिक प्रमाणिक है।
राज्याभिषेक के दिन उज्जैन के जनमानस की खुशी का ठिकाना नहीं था। विक्रम सेन को उनके पराक्रम और तेजस्विता के कारण ‘आदित्य’ की उपाधि दी गई, और तभी से वे विक्रमादित्य कहलाए।
नक्षत्र गणना के अनुसार, ठीक पंद्रह दिन बाद — कार्तिक अमावस्या के दिन — भव्य राजतिलक उत्सव मनाया गया। उस रात्रि में विधिपूर्वक पूजा-अर्चना हुई, और अंधकारमय रात में जनसामान्य ने अपने घरों में दीये जलाकर उत्सव मनाया। यही परंपरा आगे चलकर दीपावली के रूप में प्रसिद्ध हुई।
राजदरबार से राज्य की सभी स्त्रियों को बहन मानते हुए उपहार भेजे गए — यही परंपरा आगे चलकर भैया दूज के रूप में जानी गई।
इसी प्रकार गौशालाओं में गोवंश की पूजा की गई, जिससे गोधन (गोवर्धन) पूजा की परंपरा प्रारंभ हुई।
इस प्रकार दीपावली का सीधा संबंध एक महान, प्रतापी, और जनप्रिय शासक वीर विक्रमादित्य से है — जो पीढ़ियों तक भारतीय जनमानस की जुबान पर दंतकथाओं के रूप में जीवित रहे।
दुर्भाग्यवश, अब वे कहानी कहने वाले लोग धीरे-धीरे विलुप्त हो गए हैं, और हमारी पीढ़ियाँ इस महान शासक को भूलती जा रही हैं — जिसके कारण ही आज हमारा सबसे बड़ा पर्व दीपावली मनाया जाता है।
अब यह जानना आवश्यक है —
👉 महान पराक्रमी वीर विक्रमादित्य किस वंश के राजा थे?
ये पंवार वंश के गुर्जर राजा थे।
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