बर्बरता

बर्बरता

अभी तो मिट्टी ने उर में बीज संभाला ही था,

न सूर्य ने उसे नेह से निहारा था,

न पवन ने उसे प्यार से सहलाया था,

बस धरती की नमी में एक नन्ही-सी आशा पल रही थी —

पीली नहीं, स्वर्ण-सपनों की झिलमिलाती आकांक्षा।

 

किसान ने जब हल चलाया,

तो हर रेखा में रचा था उसने भविष्य का आलोक —

कंगनों की झंकार, बच्चों की हँसी,

और साहूकार के बोझ का उतरना।

मिट्टी में वह विश्वास बो रहा था,

कि इस बार सरसों मुस्कुराएगी

और जीवन में फिर से खुशहाली आयेगी।

 

किन्तु, नभ ने करुणा का रूप धर

अवसरहीन बरखा भेज दी —

बूँदें उतरीं, पर वरदान नहीं लाईं।

धरती की कोख में जो स्वप्न थे,

वे गीली मिट्टी में घुटकर रह गए —

मानो सृष्टि ने अधूरी रचना बीच में ही रोक दी हो।

अब खेत पर पसरी है एक नम-सी निःशब्दता,

जैसे धरती स्वयं अपने गर्भ का शोक मना रही हो।

किसान दूर तक देखता है —

जहाँ हर बूंद उसके पसीने की प्रतिच्छाया बनकर गिर रही है।

 

फिर भी उसके नेत्रों में बुझी नहीं वह लौ ,

क्योंकि वह जानता है ,

सरसों का रंग केवल धरती में नहीं,

मनुष्य की जिजीविषा में भी उगता है।

सृजक

महेश शास्त्री

प्रस्तुति