
प्रस्तावना
“शूरा सोई सराहिए, जो लड़े हीन के हेत।
पुर्जा–पुर्जा हो गये, फिर भी न छोड़े खेत।।“
भारतीय सनातन संस्कृति विश्व की सबसे प्राचीन और जीवंत संस्कृतियों में से एक है। यह ‘जियो और जीने दो’ के मूल सिद्धांत पर आधारित है। हमने कभी भी उस पुरुषार्थ या सत्ता की प्रशंसा नहीं की, जो दूसरों के शोषण के आधार पर पनपी हो; बल्कि हमने सदैव उन्हीं का सम्मान किया है जिन्होंने न्याय के पक्ष को सशक्त करने के लिए अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया।
हमारे पूर्वज और हमारे जीवन-मूल्य सदैव त्याग, समर्पण और साहस से भरे हुए रहे हैं। इस पुस्तक में भी हमने अपने उन महान पूर्वजों के जीवन-चरित्र को लेखनी के माध्यम से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, जिन्होंने भारत-भूमि के संरक्षण और निर्माण के लिए अपनी सम्पूर्ण शक्ति को न्यौछावर कर दिया।
भारत के राजनीतिक और सांस्कृतिक आधार पर पहले अरबों, फिर मुगलों और अंत में अंग्रेजों ने लगातार हमले किए। अनेक अवसरों पर ऐसा प्रतीत हुआ कि भारत की सांस्कृतिक विरासत अब शायद बच न पाएगी। किंतु भारत के महान सपूतों ने— लगभग 300 वर्षों तक गुर्जर-प्रतिहारों ने अरबों से, लगभग 150 वर्षों तक जाटों ने मुगलों से, 180 वर्षों तक मराठों ने मुगलों और अंग्रेजों से, तथा 150 वर्षों तक सिखों ने मुगलों से संघर्ष कर— इस विरासत की रक्षा की। इस दीर्घ संघर्ष में हजारों वीर योद्धाओं, करोड़ों सामान्य सिपाहियों तथा नागरिकों ने प्राणों की आहुति दी।
इस कालखंड में गुर्जर-प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज (836–885 ई.) का काल विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यह वह समय था जब आदि शंकराचार्य जी के प्रयासों से साधु-संघों में सैन्य-पथ का उद्भव हुआ, जिन्हें आगे चलकर नागा साधु कहा गया। नागा साधुओं ने भारतीय सनातन संस्कृति की रक्षा के लिए अतुलनीय बलिदान दिए। सनातन धर्म में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चार पुरुषार्थ बताए गए हैं और सैनिक-संघर्ष का उत्तरदायित्व राजा पर रखा गया है, परंतु इस्लामी आक्रमणों की आक्रामकता ने साधु-संघों को भी सैन्य-पथ अपनाने के लिए बाध्य कर दिया।
इसी प्रकार जब गुर्जर-प्रतिहार राजाओं के दृढ़ प्रतिरोध के कारण भारत में इस्लाम का विस्तार अवरुद्ध हुआ, तब इस्लाम में ग्यारहवीं सदी में सूफी सम्प्रदाय/साधु-पथ का उभार हुआ। इस्लाम में रोज़ा, नमाज़, जकात, हज और जिहाद पाँच पुरुषार्थ माने गए, किन्तु भारतीय प्रतिरोध ने इस्लामी विश्व को साधु-पथ/सूफी धारा को स्वीकार करने की दिशा में विवश किया। यहाँ प्रतिहारों का उल्लेख इसलिए प्रमुख है क्योंकि भारत के अन्य दो समकालीन राजवंश— पाल और राष्ट्रकूट— इस संघर्ष से दूर रहे और कई बार प्रतिहारों के युद्धकाल में उन पर पीछे से आक्रमण कर अनजाने में अरबों की सहायता करते रहे।
तेरहवीं शताब्दी में मंगोल सम्राट हलाकू खान द्वारा बगदाद और खलीफा का विनाश करने के बाद ऐसा लगा कि इस्लाम समाप्त हो जाएगा, परंतु सूफियों ने हलाकू के ही एक भाई को इस्लाम में दीक्षित कर इस आशंका को दूर कर दिया और अपने प्रभाव का परिचय दिया।
औरंगज़ेब के काल में ऐसा प्रतीत हुआ कि भारत का सनातन धर्म अब समाप्त हो जाएगा, परंतु दक्षिण में छत्रपति शिवाजी महाराज का संघर्ष, उत्तर में जाटों और सिखों के संघर्ष ने औरंगज़ेब के मंसूबों को विफल कर दिया। शिवाजी महाराज के पराक्रमी सेनापति प्रताप राव गुर्जर तथा आगे चलकर पेशवाओं द्वारा किए गए संघर्ष ने भारतीय समाज में अद्भुत ऊर्जा का संचार किया।
सत्रहवीं शताब्दी में गोकुला जाट द्वारा औरंगज़ेब के विरुद्ध उद्घोषित युद्ध तथा उसके बलपूर्वक दमन के परिणामस्वरूप राजाराम जाट ने अकबर के मकबरे में दबी उसकी हड्डियों को निकालकर दहन कर दिया— यह मुगल सत्ता के विरुद्ध खुली चुनौती थी, जिसने अंततः मुगल साम्राज्य के पतन में निर्णायक भूमिका निभाई।
भारत को प्रायः उत्तर और दक्षिण— दो भागों में देखा गया। दक्षिण में जाति-प्रथा और उत्तर में यजमान-प्रथा विद्यमान थी। दक्षिण भारत में मजदूर जातियों पर संपूर्ण किसान-समुदाय का अधिकार होने के कारण शोषण अधिक हुआ, इसलिए वहाँ दलित आंदोलनों का उभार हुआ। परंतु उत्तर भारत में यजमान-प्रथा के अंतर्गत एक किसान परिवार के साथ एक ही मजदूर परिवार जुड़ा होता था और दूसरा किसान उससे काम नहीं लेता था। इस परस्पर सहयोग के कारण समाज में एकता थी और संकट के समय सभी जातियाँ मिलकर संघर्ष करती थीं। तैमूर लंग के आक्रमण के समय जोगराज सिंह गुर्जर के नेतृत्व में तथा 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में समाज ने संगठित होकर अपने क्षेत्र और जीवन-मूल्यों की रक्षा की।
अंग्रेजों के आगमन के पश्चात भारतीयों का आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक (ईसाईकरण का प्रयास) तीनों स्तरों पर शोषण हुआ। 1857 के महान स्वतंत्रता संग्राम में लगभग एक करोड़ भारतीयों ने अपने प्राणों का बलिदान देकर अंग्रेजों के भारत को ईसाई राष्ट्र बनाने के सपने को ध्वस्त कर दिया। यह संघर्ष केवल भारत ही नहीं, बल्कि समस्त मानव-संस्कृति को नई दिशा देने वाला सिद्ध हुआ।
महात्मा गांधी जी ने कहा था कि अंग्रेजों ने भारतीयों को मुगल शासकों से भी अधिक हानि पहुँचाई है और उन्हें शस्त्रविहीन कर दिया। इसलिए प्रथम विश्वयुद्ध के समय गांधीजी के प्रयासों से भारतीय समाज ने लगभग 6–8 लाख भारतीय सैनिक अंग्रेजी सेना में भर्ती कराए। द्वितीय विश्वयुद्ध में वीर सावरकर जी के प्रयासों से लगभग 20–25 लाख भारतीय सैनिक अंग्रेजी सेना में शामिल हुए। यही सैनिक आगे चलकर नेताजी सुभाषचंद्र बोस की *आज़ाद हिंद फ़ौज* की रीढ़ बने।
कांग्रेस द्वारा स्वतंत्रता-आंदोलनों का नेतृत्व करते समय अंग्रेजों के अधीनस्थ रियासतों में रह रही जनता के लिए आंदोलन नहीं किए जाते थे। किंतु महान क्रांतिकारी विजय सिंह पथिक ने 1916 में ही बिजौलिया किसान आंदोलन प्रारंभ कर रियासतों में होने वाले उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्ष किया— जो गांधीजी के आंदोलन प्रारंभ होने से पहले का ऐतिहासिक युग-प्रवर्तक प्रयास था।
लंबे संघर्ष के बाद, 15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ, पर साथ ही पाकिस्तान के रूप में एक अलग देश भी अस्तित्व में आया।
यह हमारे पूर्वजों के अद्वितीय बलिदान का ही परिणाम था कि 1192 से 1947 तक— लगभग 755 वर्षों तक— इस्लामी और ईसाई शासन के अधीन रहते हुए भी भारतीय सनातन समाज दिल्ली एवं उसके आसपास लगभग उसी रूप में विद्यमान रहा जैसा 1192 से पूर्व था।
नवयुग में एक उन्नत जीवन जीते हुए हमें अपने पूर्वजों के साहस, त्याग और जीवन-मूल्यों को स्मरण रखते हुए आगे बढ़ना है। यह ध्यान रखना है कि हमारी पहचान वैश्विक भीड़ में कहीं खो न जाए। हमें *नित-नूतन चिर-पुरातन*— अर्थात अच्छे नए को अपनाते हुए और अपने श्रेष्ठ पुराने मूल्यों का संरक्षण करते हुए— भविष्य की ओर कदम बढ़ाने हैं। यही हमारे पूर्वजों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
आज के भारत में मेरे ही परिवार एवं संबंधियों में मेरी माता और नानी— जो अब इस संसार में नहीं हैं— तथा दो ऐसी महिलाएँ हैं जिन्होंने जीवन की अनेक कठिनाइयों का सामना करते हुए उच्च जीवन-मूल्यों का पालन किया और अपने जीवन को आदर्श रूप में स्थापित किया। उनका संक्षिप्त जीवन-परिचय भी इस पुस्तक में प्रस्तुत किया गया है।
**‘हमारे पूर्वज एवं उनके जीवन-मूल्य’** नामक इस पुस्तक में लेखक ने असंख्य बलिदानी महापुरुषों में से 19 महापुरुषों के जीवन पर लेखन किया है। साथ ही समाज के तत्कालीन विषयों पर लगभग 20 लेख तथा अन्य विषयों से संबंधित लेख भी संकलित किए गए हैं। आशा है कि इस पुस्तक में संकलित सामग्री पाठकों को भारत एवं भारतीयों के संघर्ष के बारे में नई जानकारी देगी और हमारी नई पीढ़ी को अपने जीवन-मूल्यों की रक्षा के लिए प्रेरित करेगी।
सूचना स्रोत

अध्यक्ष, प्रताप राव गुर्जर स्मृति समिति, मेरठ
पाठ्य उन्नयन और विस्तार व प्रस्तुति



