वास्तविकता को स्वीकार करना
(एक समाजशास्त्री के दृष्टिकोण से)
समाजशास्त्री डॉ. राकेश राणा के अनुसार, “जीवन की सबसे बड़ी समझ यह है कि कुछ भी स्थायी नहीं है। जब व्यक्ति इस सत्य को आत्मसात कर लेता है, तब वह न केवल व्यक्तिगत रूप से बल्कि सामाजिक रूप से भी अधिक संतुलित और सहिष्णु बनता है।”
यह विचार सिर्फ दर्शन नहीं, बल्कि सामाजिक व्यवहार की बुनियाद है।
परिवर्तन ही समाज का नियम है
डॉ. राणा कहते हैं कि समाज निरंतर परिवर्तनशील है। परंपराएँ, मूल्य, संबंध और मान्यताएँ — सब समय के साथ रूपांतरित होते रहते हैं। जो व्यक्ति या समाज इस सत्य को नहीं स्वीकारता, वह संघर्ष और असंतोष में जीता है।
उदाहरण के लिए, संयुक्त परिवारों का न्यूक्लियर परिवारों में बदलना प्रारंभ में अनेक लोगों को अस्वीकार्य लगा। परंतु जब हमने इसे सामाजिक आवश्यकता के रूप में समझा, तब पीढ़ियों के बीच संवाद और सम्मान की नई परिभाषाएँ बनीं। यही “वास्तविकता को स्वीकारना” है।
अस्थायित्व की समझ से सहनशीलता का विकास
डॉ. राणा के मतानुसार, जब हम जानते हैं कि परिस्थितियाँ बदलेंगी, तब हम दूसरों के प्रति अधिक सहनशील हो जाते हैं।
मान लीजिए, किसी कार्यस्थल पर सहकर्मी का व्यवहार एक समय हमें खलता है, पर यदि हम यह समझ लें कि उसका तनाव भी अस्थायी है, तो हम उसे क्षमा करने में सक्षम हो जाते हैं। यही दृष्टिकोण समाज को स्थायित्व देता है।
न्याय करने से पहले समझना
समाजशास्त्री का मानना है कि आलोचना से अधिक महत्वपूर्ण है समझ। जब हम किसी व्यक्ति के कर्म को उसके सामाजिक और मानसिक परिवेश के संदर्भ में देखते हैं, तो हमारा दृष्टिकोण अधिक परिपक्व बनता है।
उदाहरण के लिए, अगर कोई युवा अपने करियर को लेकर भ्रमित है, तो उसे “अस्थिर” कहने के बजाय यह समझना चाहिए कि सामाजिक दबाव और अवसरों की अधिकता ने उसके निर्णय को कठिन बना दिया है।
स्वीकृति से सामाजिक समरसता
डॉ. राणा कहते हैं — “वास्तविकता को स्वीकार करने वाला व्यक्ति समाज में मतभेद नहीं, संवाद बढ़ाता है।”
जब हम यह मान लेते हैं कि सभी की सोच एक समान नहीं हो सकती, तब हम बहस के बजाय वार्तालाप को प्राथमिकता देते हैं। यही गुण लोकतांत्रिक समाज की आत्मा है।
निष्कर्ष
अस्थायित्व में स्थायित्व खोजने की कला
डॉ. राकेश राणा के शब्दों में — “जीवन का सौंदर्य इसी में है कि यह स्थायी नहीं है। जब हम इस अस्थायित्व को समझकर जीना सीख जाते हैं, तब जीवन हमें व्यर्थ नहीं, मूल्यवान लगने लगता है।”
अतः हर बुद्धिमान व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि वह वास्तविकता को नकारे नहीं, बल्कि उसे गले लगाए — क्योंकि स्वीकृति ही मन की शांति और समाज की समरसता का द्वार है।
समाजशास्त्री का संदेश
“वास्तविकता से भागना नहीं, उसे समझकर अपनाना ही सच्ची प्रगति है।”
रचनाकार
डॉ. राकेश राणा
समाजशास्त्री