भूमिका
‘अम्मा होते बाबूजी’ एक साधारण-से दिखने वाले घर की असाधारण कहानी है, जहाँ अम्मा के जाने के बाद बाबूजी केवल पिता नहीं रहते अपितु वे माँ भी बन जाते हैं। यह नाटक जीवन के उस सूक्ष्म और अनकहे पक्ष का स्पर्श करता है जहाँ जिम्मेदारी ममता में बदल जाती है, और कठोरता के पीछे छिपा स्नेह खुलकर बोलता है। तीन अंकों में बँटा यह मंचन एक ऐसी यात्रा है, जिसमें बाबूजी अपने भीतर के वात्सल्य को खोजते हैं, बच्चों के आँसू पोछते हैं, और अपने मौन में अम्मा के बोल पिरोते हैं। यह प्रस्तुति उन सभी पिता-पुत्रियों और पिता-पुत्रों के बीच के उस अदृश्य सेतु की कहानी है, जिसे शब्दों में नहीं, केवल संवेदनाओं में महसूस किया जा सकता है।
‘अम्मा होते बाबूजी’ प्रेम, त्याग और मौन ममता की एक भावपूर्ण गाथा है, जो हर दिल को छूने का सामर्थ्य रखती है।
नाटक
अम्मा होते बाबूजी
(तीन अंकों का नाटक)
पात्र :
अम्मा (शालू देवी) — घर की आत्मा
बाबूजी (महंत जी) — घर के स्तम्भ।
मोनू — बड़ा बेटा/बेटी (आयु 13-14 साल)।
चिंटू — छोटा बेटा (आयु 8-9 साल)।
दादी — बाबूजी की माँ।
डॉक्टर
नर्स
पड़ोस वाली दादी
झाड़-फूँक वाले बाबा
स्कूल की प्रिंसिपल
कुछ पड़ोसी और रिश्तेदार (भीड़ के दृश्य के लिए)
प्रथम अंक : अम्मा का घर — ममता और संघर्ष
प्रथम दृश्य : घर की हलचल
(सुबह का दृश्य। मंच पर रसोई का सेटअप। अम्मा भागती-दौड़ती काम कर रही हैं। बच्चे स्कूल जाने की तैयारी में। बाबूजी अखबार पढ़ते हैं।)
अम्मा (तेजी से काम करते हुए):
“मोनू, टिफिन ले लो! चिंटू, जूते कहाँ हैं तुम्हारे?”
बाबूजी (मजाक में):
“घर को ऑफिस बना दिया है शालू!”
अम्मा (हँसते हुए):
“घर क्या है बाबूजी…एक दफ़्तर ही तो है, जहाँ तनख्वाह नहीं, बस प्यार मिलता है!”
(सब हँसते हैं। परिवार का गर्मजोशी भरा माहौल दिखता है।)
द्वितीय दृश्य : रात की बातें
(रात का समय। सब खाना खा चुके हैं। बच्चे अम्मा से कहानियाँ सुनते हैं। बाबूजी शांत बैठे देखते हैं।)
चिंटू (मासूमियत से):
“अम्मा, आप दिन भर थकती नहीं?”
अम्मा (मुस्कुराकर, बच्चों के सिर पर हाथ फेरते हुए):
“जब प्यार करने वाले अपने हों, तो थकान भी दुआ बन जाती है बेटा।”
अंत संकेत :
(धीमे प्रकाश में अम्मा अकेले बैठकर सुई-धागा करते हुए सोचती हैं — “सबका ख्याल रखते-रखते खुद को कब भूल गई, पता ही नहीं चला…”)
(प्रथम अंक समाप्त)
द्वितीय अंक : अम्मा का संघर्ष — बीमारी और टूटता संसार
प्रथम दृश्य : अम्मा अस्वस्थ होती हैं।
(अम्मा रसोई में चक्कर खाकर गिर जाती हैं। मोनू घबराकर बाबूजी को बुलाता है। सब दौड़ते हैं।)
मोनू (चिल्लाकर):
“बाबूजी! अम्मा गिर गईं!”
बाबूजी (अम्मा को उठाते हुए):
“शालू! आँखें खोलो!”
(अस्पताल ले जाने की तैयारी होती है। दादी रोती हैं।)
द्वितीय दृश्य : अस्पताल का कमरा
(अस्पताल का सादा कमरा। अम्मा बेहोश। बाबूजी उनका हाथ थामे बैठे हैं। बच्चे एक कोने में सहमे बैठे हैं। नर्स आती-जाती है।)
डॉक्टर (गंभीर आवाज में बाबूजी से):
“बहुत देर हो गई…अब इलाज से ज्यादा दुआ का सहारा है।”
(बाबूजी स्तब्ध। मोनू धीरे से चिंटू का हाथ पकड़ता है।)
तृतीय दृश्य : आखिरी बातें
(रात का समय। अम्मा को होश आता है। बहुत कमजोर आवाज में बच्चों को पुकारती हैं।)
अम्मा (धीरे-धीरे):
“मोनू…चिंटू…आओ पास।”
बाबूजी (आँखों में आँसू लेकर):
“मैं हूँ शालू…यहीं हूँ।”
अम्मा (बाबूजी का हाथ पकड़ते हुए):
“अब तुम्हें अम्मा भी बनना पड़ेगा बाबूजी…मेरे बच्चों के लिए।”
(धीरे-धीरे अम्मा की आँखें बंद हो जाती हैं। सन्नाटा।)
अंत संकेत :
(दीपक की लौ मंद होती है। मंच पर अंधेरा छा जाता है।)
(अंक 2 समाप्त)
तृतीय अंक : बाबूजी होते अम्मा — टूटन से तपस्या तक
पहला दृश्य : अम्मा के बिना घर
(घर का वही दृश्य, पर उदासी फैली है। बाबूजी चुपचाप रसोई में चाय बनाते हैं। मोनू और चिंटू चुप बैठे हैं।)
बाबूजी (हल्के से मुस्कुराते हुए):
“आज बाबूजी चाय बनाएँगे…वैसी जैसी अम्मा बनाती थीं।”
(बच्चे थोड़ी सी मुस्कान के साथ बाबूजी की कोशिश को देखते हैं।)
दूसरा दृश्य : नई जिम्मेदारी
(मोनू स्कूल में शिकायत लेकर आता है। चिंटू रो रहा है।)
मोनू (गुस्से में):
“अब अम्मा नहीं रहीं, तो सब मुझे चिढ़ाते हैं।”
बाबूजी (गले लगाते हुए):
“अम्मा अब बाबूजी में ही है।
तुम्हारी हर चोट, हर आँसू अब मैं सम्हालूँगा।”
(भावनात्मक क्षण। घर में फिर से जीवन की हल्की चहक लौटने लगती है।)
अंतिम दृश्य : अम्मा के नाम एक वादा
(अम्मा की तस्वीर के सामने दिया जलता है। बाबूजी बच्चों के साथ तस्वीर के सामने खड़े हैं।)
बाबूजी (प्रतिज्ञा करते हुए):
“शालू, वादा है — जब तक साँस है, तेरे बच्चों को तेरी ममता की छाँव दूँगा।
अम्मा होते बाबूजी बनूँगा।”
(बच्चे बाबूजी का हाथ थामते हैं। प्रकाश धीरे-धीरे बढ़ता है — एक नई सुबह के संकेत के साथ।)
(पर्दा गिरता है।)
रचयिता
श्रीमति लता अग्रवाल ‘तुलजा’
पाठ्य परिवर्तन और विस्तार
चैट जीपीटी
प्रस्तुति