एक रुपया और समाज की क्रांति
(प्रो. कलम सिंह की दृष्टि में ‘दहेज मुक्त संस्कार’ की मिसाल)
मुजफ्फरनगर की यह घटना मात्र एक विवाह संस्कार नहीं, बल्कि भारतीय समाज की उस मानसिक गुलामी के विरुद्ध उठी प्रतीकात्मक पुकार है, जिसने बेटियों के जनक को वर्षों से चिंताओं की जंजीरों में जकड़ रखा है। प्रोफेसर कलम सिंह, जो स्वयं समाजशास्त्र के गहन अध्येता और समाज की रीति-नीतियों के सूक्ष्म विश्लेषक हैं, इस विवाह को “संस्कारिक सुधार की सामाजिक प्रयोगशाला” बताते हैं।
वे कहते हैं — “जब कोई व्यक्ति परंपरा को तोड़ने का साहस करता है, तभी परिवर्तन का द्वार खुलता है। चरण सिंह गुर्जर और उनके पुत्र अंशुल ने जिस सरलता से एक रुपया सगाई और एक रुपया भात के रूप में लेकर विवाह का सूत्रपात किया, वह एक नयी सामाजिक चेतना का प्रारंभ है।”
कुरीति से क्रांति तक का सफर
समाजशास्त्री के अनुसार, दहेज जैसी कुरीतियां तब तक जीवित रहती हैं जब तक लोग उन्हें ‘परंपरा’ मानते रहते हैं। लेकिन जैसे ही कोई एक परिवार ‘ना’ कहता है — वह हजारों अन्य परिवारों को सोचने पर विवश कर देता है। चरण सिंह गुर्जर का यह निर्णय केवल एक परिवार की सादगी नहीं, बल्कि सामाजिक समता के आंदोलन की शुरुआत है।
प्रोफेसर कलम सिंह आगे कहते हैं —
“सगाई और भात जैसे अवसर, जो धीरे-धीरे दिखावे की प्रतिस्पर्धा में बदल गए थे, आज फिर से मूल उद्देश्य की ओर लौटे हैं — स्नेह और संस्कार के प्रतीक के रूप में। यह ‘एक रुपया’ वास्तव में मूल्यहीन नहीं, बल्कि मूल्यवान है क्योंकि इसने समाज के सामने यह प्रमाण रखा कि रिश्ते रुपये से नहीं, विश्वास से बनते हैं।”
सामाजिक पुनर्जागरण का संकेत
इस घटना को समाजशास्त्रीय दृष्टि से देखें तो यह दहेज विरोध की वह जीवंत मिसाल है जो नारे या भाषणों से नहीं, बल्कि व्यवहार से जन्मी है। जब मंच पर भाकियू के राष्ट्रीय अध्यक्ष चौधरी नरेश टिकैत जैसे प्रभावशाली जननेता उपस्थित रहे और उन्होंने इस सोच को सम्मान दिया, तो यह सामाजिक समर्थन की भी घोषणा बन गई।
प्रो. कलम सिंह इस संदर्भ में लिखते हैं —
“जब समाज के प्रभावशाली वर्ग ऐसे निर्णयों को स्वीकार करने लगता है, तो धीरे-धीरे पूरी सामाजिक संरचना में परिवर्तन की लहर दौड़ती है। यह घटना उस बदलाव का शुभारंभ है, जहां बेटियों के पिता दहेज की चिंता से नहीं, उनके सम्मान से विवाह करेंगे।”
‘एक रुपया’ – सौभाग्य का प्रतीक
समाजशास्त्र के मर्मज्ञ प्रोफेसर इसे “सौभाग्य का रूपक” मानते हैं।
वे कहते हैं —
“जिस दिन दहेज का लेन-देन समाप्त होगा, उसी दिन समाज की नैतिकता पुनर्जन्म लेगी। यह एक रुपया कोई तुच्छ राशि नहीं, बल्कि सामाजिक शुद्धता का प्रतीक है — एक सौभाग्यशाली संकेत कि समाज अब अपनी असली मानवता की ओर लौट रहा है।”
समापन में
इस कार्यक्रम के साक्षी रहे प्रोफेसर कलम सिंह ने इसे केवल विवाह समारोह नहीं, बल्कि “संस्कारों का जनजागरण” कहा। उनका मानना है कि ऐसे उदाहरणों को शिक्षण संस्थानों, पंचायतों और समाजिक मंचों पर चर्चित किया जाना चाहिए ताकि यह विचार व्यापक बने —
कि “दहेज नहीं, सहमति और संस्कार ही विवाह का सच्चा सौंदर्य हैं। हमने बीसवीं शताब्दी में अनेक बुराइयों को पीछे छोड़ दिया है। अब आइए, इक्कीसवीं शताब्दी में नए कीर्तिमान स्थापित करें। हम अपने आचरण और चरित्र में अधिक मानवीय, समतावादी और पवित्र बनें।”
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