जनपद सहारनपुर में हमारे गुर्जरों के पुरखे खाने में बहुत अनुशासित थे। बासमती के सुगंधित चावल, उनके साथ धीमी धीमी आंच पर पकने वाली उड़द की दाल और देशी घी वाला बूरा, उनका प्रिय और पारंपरिक भोजन था। अतिथि सत्कार के लिए भी यही मुख्य भोजन माना जाता था।
हमारी उड़द की दाल का स्वाद तो विश्व विख्यात है। हम कचौरी, परांठे, पनीर, छोले आदि तले-भूने खाने से परहेज करते रहे। तले-भुने भोजन को हम बनियों-ब्राह्मणों का भोजन मानते थे।
दूध तो हमारे आहार का अभिन्न और अनिवार्य अंग था। रात को बिना दूध पिए बच्चों से लेकर बूढों तक को नींद नहीं आती थी। दूध के बिना घर सूना माना जाता था। एक देशी कहावत है
“जाटनी को पूत की, गूजरी को दूध की सर्वाधिक मामता होती है।”
दूध का स्थान किसी पूज्य पदार्थ से कम नहीं था। यदि दूध जमीन पर गिर जाता था तो महिलाएं उसके आगे हाथ जोड़कर खेद व्यक्त करती थीं। बिखरा हुआ दूध बच्चों से चटाया जाता था।
जो हमारे पूर्वांचल के साथी हैं, जब हमारे मंढे की दाल खाते हैं तो उंगलियां चाटते हैं और कहते हैं ऐसी स्वादिष्ट दाल पूरे पूर्वांचल में कहीं नहीं मिलती। मिट्टी की हांडी यह पीतल के टोकने में में धीमी धीमी आंच पर बनने वाली लपेट्टे वाली उड़द की दाल! आह क्या बात है! ऊपर से लंबे-लंबे सुगंधित बासमती के चावल और देसी घी………..कितना पौष्टिक और स्वादिष्ट भोजन!
परंतु, अब हमारी पीढ़ियां अपने इस पारंपरिक भोजन से किनारा करती जा रही हैं। जो बहुत दु:खद है। आज हमारे युवा तला-भूना भोजन अधिक पसंद कर रहे हैं। दूध को कम बियर को अधिक महत्व दे रहे हैं। सुबह-सुबह मिलने वाले नूनी घी के स्थान पर बेहूदा क्रीम एवं सॉस को पसंद कर रहे हैं।
सुबह-सुबह मिलने वाला नूनी घी (मक्खन) का स्वाद पता नहीं कहाँ चला गया? मुझे तो आज अपना बचपन याद आ रहा है। कहाँ नौकरी के चक्कर में, बेकार में गांव छोड़कर यहाँ कस्बे में बस गए।
हे भगवान! जब अगला बचपन मिले तो माता गूजरी ही मिले।
रचनाकार

रामपुर मनिहारान
सहारनपुर
प्रस्तुति


