भूमिका (बात एक)
प्रस्तुत कविता कवि कृष्णदत्त शर्मा ‘कृष्ण’ की संवेदनशील दृष्टि, भाषायी चातुर्य और जीवन-दृष्टि का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। यह कविता मात्र ‘बात’ जैसे साधारण शब्द को आधार बनाकर जीवन के असाधारण पहलुओं को उजागर करती है। इसके हर छंद में ‘बात’ की विविध छवियाँ उभरती हैं—कभी वह प्रेम की मृदुलता है, कभी घृणा का विष, कभी वह मन को छू लेने वाली मधुरता है, तो कभी संघर्षों से उपजी कटुता। यह कविता मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, भाषायी और नैतिक दृष्टिकोण से गहराई से बात के प्रभावों की पड़ताल करती है।
कवि ने ‘बात’ के बहाने संवाद, मौन, भाषा और भावनाओं के पूरे संसार को आकार दिया है। जीवन की शुरुआत से अंत तक ‘बात’ की भूमिका को गहराई से महसूस कराते हुए, यह रचना मानवीय संबंधों के उतार-चढ़ाव, सामाजिक राजनीति, और आत्म-संवाद तक को अपने में समेटे है। कविता में श्रृंगार, हास्य, करुणा, नीति और व्यंग्य—सभी रसों की झलक है, जिससे इसकी भावभूमि समृद्ध बनती है।
अंत में ‘ईश वंदना’ द्वारा कवि बात को नैतिक और आध्यात्मिक स्तर पर प्रतिष्ठित करता है, जिससे यह केवल काव्य नहीं, एक दर्शन बन जाती है।
यह प्रस्तुति मात्र एक कविता नहीं, जीवन का संवाद है—जो बताती है कि बात ही तो है जो जीवन को मुस्कान देती है।
बात एक
बात की तो बात ही क्या बात ही हृदय लुभाती।
बात से ही तो मिली है जिन्दगी ये मुस्कराती ।
बात ही है जिसमें देखा नित नया मिठास होता।
मिठास भी न आम होता हर तरह से खास होता।
विष भरा भी बात में ही इस जगत में दीख जाता।
बात कुछ ऐसी भी होती जिससे मानव खीझ जाता।
बात से ही बात बनती बात से ही बिगड़ जाती।
बात से ही तो मिली है जिन्दगी ये मुस्कराती॥१॥
बात से बातें निकलतीं बात का न अंत होता।
कुछ मधुर बातों का सुख तो जीवन पर्यन्त होता।
अनछुई बातों की मन में एक निराली गंध होती।
गंध ऐसी जिन्दगी में न कभी भी मंद होती!
मधुर पल की बात कोई उर में रहती है लजाती।
बात से ही तो मिली है जिन्दगी ये मुस्कराती॥२॥
बात कुछ होती अमोली कोई भी न मोल होता।
सब रसों का बात में ही एक नशीला घोल होता।
बात कोई ऐसी होती उदर से न बाहर आती।
वास हृदय में ही करती हर समय ही गुनगुनाती।
बात से जो गाँठ पड़ती बात ही बस खोल पाती।
बात से ही तो मिली है जिन्दगी ये मुस्कराती॥३।।
बात ही सुमनों से कोमल बात ही होती नुकीली।
बात में परिहास भी है बात ही होती चुटीली।
कभी छोटी बात का भी दीखता बतंगड़ बनता।
कभी कड़वी बात से ही प्यार तज मुक्का है तनता।
बात ही काली कलूटी बाद ही महफिल जमाती।
बात से ही तो मिली है जिन्दगी ये मुस्कुराती।।४।।
बात हृदय तोड़ती गर बात ही उर जोड़ती है।
बात जब बढ़ती भयंकर कहीं का न छोड़ती है।
कोई क्षण ऐसे भी आते बात न मुंह खोलती है।
पर कभी बिन बोल के भी बात सब कुछ बोलती है।
बात की महिमा अनूठी बात ही क्रंदन कराती।
बात से ही तो मिली है जिन्दगी ये मुस्कराती॥५।।
बात जो भी तोल कर के अपने मुख से बोलता है।
वो ही इस पूरे जगत में प्रेम द्वारा खोलता है।
बात खुशियों का खजाना और गम की पोटली भी।
बात में होता वजन है और होती खोखली भी।
बात होती है दयालु जीत कर भी हार जाती।
बात से ही तो मिली है जिन्दगी ये मुस्कराती॥६॥
देश के नेता सदा ही बात मीठी ही बनाते।
बात करके बात अपनी बहुत जल्दी भूल जाते।
बात का विश्वास जिसने खो दिया जीवन में अपने।
वो कभी भी जिन्दगी में कर न सकता पूर्ण सपने।
बात सच्ची ही जगत में मान गौरव है दिलाती।
बात से ही तो मिली है जिन्दगी ये मुस्कराती॥७॥
ईश से विनती है मेरी बात न मिथ्या हो कोई।
बात ने प्रतिष्ठा पाई बात ने प्रतिष्ठा खोई।
हम अनैतिक बात कोई इस जगत को ना परोसें।
बात जो भी मुख से बोलें हर तरह से उसको पोषें।
बात कोई भी हमारी ना किसी को हो सताती।
बात से ही तो मिली है जिन्दगी ये मुस्कराती॥८।।
रचयिता
कृष्णदत्त शर्मा ‘कृष्ण’
भूमिका (दो)
इस कविता-संग्रह की आत्मा, एक ऐसी संवेदनशील पुकार है जो समय से परे जाकर संवाद की खोज करती है। कवि कृष्णदत्त शर्मा ‘कृष्ण’ अपनी दिवंगत पत्नी को स्मरण करते हुए, उन सजीव पलों की पुनर्रचना करते हैं जहाँ संवाद केवल शब्दों का आदान-प्रदान न होकर आत्माओं का स्पर्श बन जाता था। “तुम अगर होतीं…” से आरंभ होकर यह कविता उन अधूरी बातों की कसक को बयाँ करती है, जो कभी कही गईं, कभी अनकही रह गईं—मगर मन के किसी कोने में आज भी दिन-रात तैरती हैं। इस संग्रह में वे सारी भावनाएँ गूंजती हैं जो प्रेम, विछोह, स्मृति और आत्मीयता से उपजी हैं। यह केवल एक श्रद्धांजलि नहीं, बल्कि उस अमर संवाद की पुनरावृत्ति है, जिसमें कवि और उनकी संगिनी का आत्मिक रिश्ता अब भी साँस लेता है।
बात दो
तुम अगर होतीं मेरे संग बात ही कुछ और होती।
बात पल दो पल न होकर बात दिन और रात होती।
यूँ तो बातें हर तरफ ही हर तरह की फैलती हैं।
किन्तु कुछ बातों से देखा भावनाएं दहलती हैं।
कुछ है बातें मन सरोवर में नित ही तैरती हैं।
कोई ना मिलता किनारा मन मसोसे लहरती हैं।
तुम अगर होतीं तो शोभित अधर पर हर बात होती।
बात पल दो पल न होकर बात दिन और रात होती ॥१॥
बात तो होती हैं अब भी पर न मन की बात होती।
बात हंसती और हंसाती दीखती अन्तस में रोती।
बात हो एकाकी अब भी मन के कोने को सजाती।
और! नज़रों में जगत की साज मधुरिम-सा बजाती!
तुम अगर होतीं तो धुन भी साज की कुछ और होती।
बात पल दो पल न होकर बात दिन और रात होती।।२।।
कौन जाने बात मेरी तुम हो सुनतीं सुनती या न सुनतीं।
कैसे पहुंचे बात मुझ तक ऐसे किसी पथ को चुनतीं।
बात वो ही बात होती बिन कहे जो बात होती।
रह न पाती बिन कहे भी बिन कहे नयना भिगोती।
तुम अगर होतीं धरा पर बात हर रंगीन होती।
बात पल दो पल न होकर बात दिन और रात होती॥३।।
बात जो करता मैं लिखता बात उसमें जोड़तीं तुम।
छूट जाती बात जो भी बात वो भी जोड़तीं तुम।
बात जो लिखता मैं रहता तुम वजह हो खास उसकी।
बात का तुम ही हो जीवन और तुम ही सांस उसकी।
फिर भी तुम होतीं अगर तो बात खुल कर आम होती ।
बात पल दो पल न होकर बात दिन और रात होती।।४।।
रचयिता
कृष्णदत्त शर्मा ‘कृष्ण’
भूमिका रचना (दोनों)
चैट जीपीटी
प्रस्तुति