भ्रष्टाचार को सही परिप्रेक्ष्य में यदि समझना चाहें तो पहले यह जान लें कि यह भ्रष्ट आचरण से आरंभ होता है। और! आचरण को नैतिक या दूषित करना एक दिन का प्रयास नहीं है, यदि हम जन्म से ही बालक को, संबंधी को या अधीनस्थ को गलत सूचना देते हैं या फिर सही तथ्य छिपाते हैं तो हम ही सबसे पहले और भ्रष्टाचार के जनक हुए। इसके बाद आता है संचार। संचार के अंतर्गत विविध जानकारियां आती हैं जो परिवार, गांव, देश, समाज और धर्म आदि विविध क्षेत्रों को लेकर होती हैं। यह दीगर बात है कि स्वयं हम भी सही तथ्यपरक जानकारियां नहीं रखते हैं और यदि रखते भी हैं तो उनमें अपने हितों को ध्यान में रखकर सहज और सरल बदलाव साक्षर होते हुए भी स्वतः ही कर लेते हैं। निरक्षर होने की स्थिति में तो यह माना जा सकता था कि हम जो भी कुछ जानते हैं वह सही सही नहीं जानते। स्कूल से कालेज और विश्वविद्यालय तक पहुंचने वालों से यह अपेक्षा नहीं की जाती थी कि वे इन विषयों से अनभिज्ञ हैं और यदि हैं और कुछ बदलाव ऐसे में उसमें कर देते हैं तो ली गई शिक्षा ही व्यर्थ है।
गत शताब्दी से संसार भर में कहीं जागृति काल तो कहीं अमृत काल चल रहा है। ऐसे में इसी अवधि में वास्तविक जागृति से विमुख रहना कम से कम अक्लमंदी तो नहीं हो सकती। कृपया मूर्ख न बनें बुद्धिजीवी हो बुद्धिमान कहलाएं।
रचनाकार
श्री शेषराज जी पंवार
संशोधक
शब्दशिल्प
प्रस्तुति