कविता
छोडा़ हमने राम को कितना –
जीतने की चाह में, जीवन की राह में,
आगे बढ़ गए हम इतना,
छोडा़ हमने राम को कितना,
जीवन में अब आराम कहाँ है,
बेटे में अब राम कहाँ है,
राम सा सेवा भाव नहीं है,
कलियुग में पुरुषोत्तम राम नहीं हैं,
हर पल टूटती मर्यादा, पूछे बस इतना,
छोडा़ हमने राम को कितना,
सीना चीर तो राम नही हैं,
हर पल दौड़ती दुनिया की पहचान यही है,
नकाबों में मिलते हैं, अब अक्स हमारे,
जयचंदों की बस्ती में, ढूंढते हैं राम हमारे,
देखो अब रावण भी मुस्कुरा रहा इतना,
करते हैं हिसाब, छोडा़ हमने राम को कितना,
जिन्दगी के गणित में, हमने अपने, पराये किए हैं,
इस घोर कलयुग में, हमने भी कुछ पाप किए हैं,
अब पूछे पालनहार से इतना,
छोडा़ हमने राम को कितना,
अब जब मन समझता है इतना तो –
मिटाकर शूल राहों के, जीवन की राह बनाते हैं,
चलो राम की राहों के,
फिर मुसाफिर बन जाते हैं,
करते हैं उजाला इतना,
कि अंधेरा पूछे बस इतना,
पाया हमने राम को कितना।
रचनाकार
उषा त्रिपाठी
प्रस्तुति