पिता

पिता

पिता हूँ मैं

पत्थर-सा सख्त नज़र आता हूँ।

मगर दिल मुझमें भी है।

अपनी औलाद को बनाने के लिए

पत्थर दिल बनकर चलता हूँ।

हाँ! पिता हूँ, मैं सख्त मिज़ाज़ बनकर

औलाद के सामने से हर रोज़ निकलता हूँ।

उसको निखारने के लिए ख़ुद

आग में जलता हूँ।

वो थककर ना बैठे इसीलिए

हाथ थामे राहों में निकलता हूँ।

उसकी हर जीत पर खुश होता हूँ और

हारने पर उसके कन्धे पर हाथ रखता हूँ।

मैं उसको और ऊँची उड़ान भरने को कहता हूँ,

कदम लडखड़ाये नहीं इसलिए हौसला

बढ़ाते रहता हूँ।

जीतोगे एक ना एक दिन बस यही समझाते रहता हूँ।

पिता हूँ साया बनकर साथ हूँ तेरे यही जताते रहता हूँ।

रचनाकार

माया शर्मा