गंगा दशहरा

गंगा दशहरा

सतयुग में ध्यान, त्रेतायुग में ध्यान और तप एवं द्वापर में ध्यान, तप तथा यज्ञ के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती थी, लेकिन कलियुग में केवल माँ गंगा ही मोक्ष प्रदान करने वाली हैं तो माँ गंगा की महिमा का बखान एक शोधार्थी के सौजन्य से प्रस्तुत है।

गंगा दशहरा

गंगा आई पर्वत से जब,

धरती भी मुस्काई।

पाप धुले जीवन में जन के,

हरियाली है छाई ।।

शंभु जटा सुशोभित होती,

बनती मोक्ष की धारा ।

भक्तों के मन दीप जलाकर,

आया पर्व है प्यारा ।।

गंगा तट पर, गंग आरती,

जय-जय गंगे मैया ।

तू ही भव सागर से तारे,

मेरी जीवन नैया ।।

पत्तों की है नाव बनाकर ,

दीपदान अति प्यारा ।

धूप-दीप और फूल चढाते,

श्रृद्धा का सुर न्यारा ।।

पर्वत पग में पायल जैसी,

छम-छम करती गंगा ।

पाप ताप को हरने आई,

डुबकी लगा मन चंगा ।।

हरिद्वार से गंगासागर,

तेरी महिमा न्यारी ।

तेरे तट की रज भी प्यारी,

जीवन में सुखकारी ।।

पुण्य पर्व पर जन जय बोलें,

निर्मल तन-मन सारा ।

गंगे ! जीवन तेरे सहारे,

तुझसे प्रेम हमारा ।।

हर लहर तेरी कहती है,

गौरव की यश गाथा ।

लहरों में विश्वास पले है,

विश्व झुकाए माथा ।।

रचयिता

प्रस्तुति

डॉo छाया शर्मा, अजमेर, राजस्थान