हम कितने आत्ममुग्ध हैं!
स्वदोषान् न पश्यन्ति,
परेषां दोषदर्शिनः।
आत्ममुग्धा नराः सर्वे,
नाशं यान्ति न संशयः॥
आज का मनुष्य जिस दिशा में अग्रसर है, वह बाह्य रूप से उन्नति का मार्ग प्रतीत होती है, किन्तु भीतर से वह आत्ममुग्धता के दलदल में धँसता जा रहा है। आत्ममुग्धता अर्थात् स्वयं के प्रति अत्यधिक आसक्ति, अपने व्यक्तित्व, विचारों और कर्मों की अंधभक्ति , यह आज के युग का सबसे प्रच्छन्न विष है, जो धीरे-धीरे संवेदनशीलता, आत्मचिंतन और विनम्रता को नष्ट करता जा रहा है।
मनुष्य जब अपने को ही सर्वश्रेष्ठ मानने लगता है, तब उसके भीतर सुधार का द्वार बंद हो जाता है। वह मानो अपने अहंकार की दीवारों में कैद होकर जीने लगता है। कोई यदि उसे परिष्कार का संकेत दे दे, तो वह आत्मपरीक्षण करने के स्थान पर उलटे उसी व्यक्ति की निन्दा या उपहास करने लगता है। इस प्रकार आलोचना स्वीकारने की क्षमता लुप्त होती जा रही है। विचारों का आदान-प्रदान जहां होना चाहिए, वहां प्रतिस्पर्धा और ‘मैं ही सत्य हूं’ की भावना पनप रही है।आत्ममुग्ध व्यक्ति का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि वह अपने दोषों को देख ही नहीं पाता। उसे अपने व्यक्तित्व का ऐसा मोह होता है कि हर शब्द, हर कर्म उसे निर्दोष प्रतीत होता है। यही कारण है कि समाज में परस्पर सीखने और सुधारने की परम्परा धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है। किसी की बात सुनना आज विनम्रता नहीं, कमजोरी समझी जाने लगी है।
किन्तु सच्चा व्यक्ति वह नहीं जो त्रुटिरहित हो, बल्कि वह है जो अपनी त्रुटियों को पहचानकर उन्हें सुधारने का साहस रखता हो। विनम्रता ही वह द्वार है, जिससे आत्मविकास का प्रवेश होता है। जो व्यक्ति स्वयं को अधूरा मानता है, वही पूर्णता की ओर अग्रसर हो सकता है। आत्ममुग्ध व्यक्ति भले ही कुछ समय के लिए चमक उठे, किन्तु उसका वह तेज कृत्रिम होता है । जो आलोचना की धूप में टिक नहीं पाता।आवश्यक यह है कि हम आत्ममुग्धता के इस जाल से स्वयं को मुक्त करें। अपने भीतर प्रश्न पूछने की आदत पुनः जाग्रत करें — क्या मैं वास्तव में सही हूं? क्या मेरे भीतर सुधार की कोई गुंजाइश नहीं रही? यही आत्मसंवाद व्यक्ति को सच्चा बनाता है। जब हम अपनी सीमाओं को स्वीकार करते हैं, तभी हम उन्हें लाँघने की शक्ति पाते हैं।अतः आज के समय की सबसे बड़ी साधना यही है ।आत्ममुग्ध न होकर आत्मजागरूक बनना। विनम्रता ही आत्मबल का वास्तविक रूप है, और परिष्कार के प्रति सजगता ही सच्चे विकास का पथ। जो स्वयं को जान लेता है, वही वास्तव में महान बनता है।
सत्यमेवोक्तम्
यो गर्वितः स न विनीतभावो,
विनीतभावो न कदाचिदर्हः।।
रचनाकार
महेश शास्त्री
प्रस्तुति


