हित और अहित समझने की जरूरत

हित और अहित समझने की जरूरत

किसी समाज या वर्ग को यदि दीर्घकालीन विनाश की ओर ले जाना हो, तो सबसे प्रभावी उपाय उसकी शिक्षा व्यवस्था को नष्ट करना होता है। जब किसी समाज को वास्तविक ज्ञान के स्थान पर अंधविश्वास, कूपमंडूकता और अप्रासंगिक विचारधाराएँ दी जाएँ, तो उसकी सोचने-समझने की क्षमता समाप्त हो जाती है, और वह समाज वैज्ञानिक प्रगति एवं तार्किक विवेक से वंचित रह जाता है।

ऐसे समाजों में प्राचीन और कालबाह्य मान्यताओं को ‘ज्ञान’ के रूप में प्रस्तुत किया जाता है—जैसे यह विश्वास कि पृथ्वी चपटी और स्थिर है तथा सूर्य उसकी परिक्रमा करता है; या यह कि सूर्यग्रहण राहु-केतु जैसे पौराणिक पात्रों के कारण होता है। इसी प्रकार, यह भी कहा जाता है कि पृथ्वी किसी दिव्य प्राणी के सींग पर टिकी है, और उसका हिलना भूकंप का कारण बनता है। वर्षा को इंद्र का अनुग्रह माना जाता है, और गंगा का अवतरण शिव की जटाओं से जोड़कर समझाया जाता है।

जब इस प्रकार की मान्यताओं को शिक्षा प्रणाली में स्थान मिलता है, और उन्हें वैज्ञानिक तथ्यों के समकक्ष प्रस्तुत किया जाता है, तो यह स्पष्ट संकेत है कि समाज को एक सुनियोजित दिशा में गुमराह किया जा रहा है।

इन विचारों को संस्थागत समर्थन देने के लिए कुछ विशेष मानसिकता वाले शिक्षाविदों को शिक्षा व्यवस्था में स्थान दिया गया। वर्ष 2002 से प्रारंभ होकर, ऐसे अनेक सहायक प्रोफेसर नियुक्त किए गए, जो वैज्ञानिक सोच से अधिक पौराणिक कथाओं और रूढ़ मान्यताओं को महत्व देते हैं। विगत दो दशकों में इनमें से कई उच्च शैक्षिक पदों, यहाँ तक कि कुलपति पद तक भी पहुँच चुके हैं।

जब इनके दृष्टिकोण को सामाजिक स्तर पर चुनौती मिलने लगी, तो व्यवस्था ने न्यायिक और प्रशासनिक उपायों के माध्यम से इस प्रवृत्ति की रक्षा का प्रयास किया। इसके परिणामस्वरूप, अब “आँसुओं से गर्भधारण” जैसे विचार भी सार्वजनिक विमर्श में स्थान पा रहे हैं—ऐसे विचार जो न केवल अवैज्ञानिक हैं, बल्कि समाज को पिछड़ेपन की ओर धकेलने वाले भी हैं।

यह समय है जब हमें शिक्षा के वास्तविक उद्देश्य—विवेक, तर्क, और वैज्ञानिक सोच—को पुनः स्थापित करना होगा। अन्यथा, हम इतिहास के गर्त में लौटने को विवश हो सकते हैं।

मूल रचनाकार

श्री शेषराज जी

पाठ्य विस्तार

चैट जीपीटी

प्रस्तुति