हमको हैरत होती है

हमको हैरत होती है

हम को हैरत होती है!

तब जब शब्दकोश की सीमित जानकारी वाला गलत शब्दों का प्रयोग कर ज्ञान अपने दृष्टिकोण से देने का प्रयास करता है।
और
जीवन में सीख देने वाली स्थितियों से किनारा करके सीख लेने को उद्यत जिज्ञासु के रूप में स्वयं को दर्शाना चाहता है।”

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और! यदि हम लोग अपनी अभिव्यक्ति में थोड़ा सा भी सफल हो सके तो हम कुदरत के बार बार आभारी होंगे।
सीमित शब्द और अधूरी सीख

मुझे हैरत होती है,
जब कोई व्यक्ति शब्दकोश की सीमित जानकारी लेकर, अपने सीमित शब्दों के दायरे में बंधा हुआ, ज्ञान का वितरक बन बैठता है। वह सोचता है कि भाषा के कुछ शब्दों का अर्थ जान लेना ही अनुभव का पर्याय है, जबकि शब्द कभी पूर्ण नहीं होते — वे तो मात्र संकेत हैं उस अनुभूति के, जिसे जीवन जीकर ही समझा जा सकता है।

शब्दों की दुनिया में जीने वाला यह व्यक्ति, अक्सर अर्थों की परतों को समझे बिना, अपने दृष्टिकोण से ज्ञान देने की कोशिश करता है। वह भूल जाता है कि ज्ञान केवल अभिव्यक्ति नहीं, अनुभूति भी है। शब्दों का सही प्रयोग तभी संभव है जब जीवन ने उन्हें अर्थ दिए हों — जब पीड़ा ने करुणा सिखाई हो, और अनुभव ने मौन को भी वाणी बना दिया हो।

परंतु आज के समय में अनेक लोग ऐसे दिखते हैं जो जीवन के साक्षात्कार से बचते हुए भी “सीख देने वाले” बन बैठे हैं। वे उन स्थितियों से किनारा कर लेते हैं जिनसे सच्ची सीख मिलती है — संघर्ष, असफलता, प्रतीक्षा, और विनम्रता की स्थितियाँ। और जब स्वयं जीवन के विद्यालय में प्रवेश नहीं करते, तो बाहर बैठकर “ज्ञान” का पाठ पढ़ाने लगते हैं।

ऐसे लोग “जिज्ञासु” का आवरण ओढ़े रहते हैं, परंतु उनकी जिज्ञासा केवल दिखावे की होती है। वे सीखने नहीं, सिद्ध होने आते हैं। उनकी दृष्टि आत्मविकास पर नहीं, आत्मप्रदर्शन पर केंद्रित होती है।

जबकि सच्चा जिज्ञासु वह है जो स्वयं को निरंतर प्रश्नों के कटघरे में खड़ा रखता है। जो अनुभव की तपस्या से गुजरने का साहस रखता है। उसे शब्दों की नहीं, भावों की भाषा आती है। वह ज्ञान को देने से पहले जीता है, और जीने के बाद ही साझा करता है।

शब्दकोश में लिखे अर्थ स्थिर हैं, पर जीवन के अर्थ बदलते रहते हैं। इसलिए जो केवल शब्दों में जीता है, वह स्थिर रहता है; और जो अनुभव में जीता है, वही प्रवाहशील बनता है।

वास्तविक ज्ञान वहीं है — जो सीखा नहीं, जिया गया हो।

उलझन सुलझन और जनचेतना मिशन