अभिवादन में नवाचार
जीवन वास्तव में जितना सरल है, हम उतना ही इसे जटिल बनाते चले जाते हैं। साधारण-सी बातें भी हमारे व्यवहार और आचार-विचार के बोझ तले उलझकर हमें आश्चर्यचकित कर देती हैं। इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण है – अभिवादन और चरण स्पर्श जैसी हमारी सांस्कृतिक परंपराएँ, जिनमें आजकल अनेक नवाचार देखने को मिल रहे हैं।
भारतीय संस्कृति में अभिवादन मात्र एक औपचारिकता नहीं, बल्कि आत्मीयता और सम्मान का प्रतीक माना जाता रहा है। ‘नमस्ते’ के लिए दोनों हाथ जोड़कर उन्हें सीने के सामने रखने की सहज परंपरा रही है। यह मुद्रा विनम्रता और एकत्व की भावना को प्रकट करती है। परंतु आधुनिकता और दिखावे के प्रभाव में अब वही हाथ अक्सर कंधे से ऊपर तक ले जाए जाते हैं। यह परिवर्तन न केवल शारीरिक मुद्रा का है, बल्कि धीरे-धीरे व्यवहार की प्रकृति को भी प्रभावित करने लगा है।
इसी प्रकार चरण स्पर्श, जो आदर और आशीर्वाद प्राप्ति का सरलतम माध्यम था, अब कई नए रूपों में सामने आ रहा है। कभी हवा में हाथ घुमाकर उसे घुटनों तक लाकर नम्रता प्रकट की जाती है, तो कभी धरती को स्पर्श कर मानो संदेश दिया जाता है कि आशीर्वाद की परंपरा निभाई जा रही है। और कभी तो यह भी कह दिया जाता है कि “आप चरण स्पर्श कराने के आकांक्षी होंगे शायद”—जिससे आदर का भाव कम और व्यंग्य का रंग अधिक झलकता है।
निश्चित ही समय के साथ परंपराएँ रूप बदलती हैं, और नवाचार सामाजिक परिस्थितियों का दर्पण भी होते हैं। किंतु प्रश्न यह उठता है कि क्या ऐसे नवाचार हमें मूल भावना से जोड़ते हैं या उससे दूर कर रहे हैं? क्या अभिवादन का उद्देश्य केवल बाहरी प्रदर्शन रह गया है, या वह आज भी हृदय की विनम्रता का सच्चा प्रतीक बन सकता है?
अभिवादन का वास्तविक अर्थ है—दूसरे के अस्तित्व का आदर करना और उसे अपने हृदय से स्वीकार करना। यदि यह भाव बना रहता है, तो चाहे हाथ सीने तक जुड़े हों या आकाश की ओर उठें, चाहे चरणों का स्पर्श हो या केवल नजरों से झुका सम्मान—हर रूप सार्थक है। लेकिन यदि भाव ही लुप्त हो जाए, तो कोई भी नवाचार केवल कृत्रिम अभिनय बनकर रह जाएगा।
इसलिए आवश्यक है कि परंपरा और आधुनिकता के बीच संतुलन साधते हुए हम अभिवादन और चरण स्पर्श की आत्मा को बचाए रखें। संस्कार तभी जीवित रहेंगे जब उनका उद्देश्य दिखावे से ऊपर उठकर हृदय की सच्ची श्रद्धा में प्रकट होगा।
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