भूमिका
साथियो! आने वाली पांच जनवरी को इस वर्ष के प्रारब्ध में ही अमर शहीद धन सिंह कोतवाल जी पर एक पुस्तिका का विमोचन होने जा रहा है तो हमने इतिहास विषय के शोधार्थियों को विषयवस्तु से अवगत कराने का निर्णय लिया। इतिहास विषय के शोधार्थी धन सिंह कोतवाल संबंधी टॉपिक्स का चयन करके नवाचारियों में सम्मिलित हो सकते हैं।
कार्यक्रम सूचना
कार्यक्रम विवरण
आज 5 जनवरी 2025 को बी टू शास्त्री नगर में अमर शहीद धन सिंह कोतवाल जी पर एक पुस्तिका का विमोचन वर्चुअली राज्यमंत्री श्री सोमेंद्र तोमर के द्वारा किया गया।
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चित्रदीर्घा
पुस्तक आवरण
प्रस्तावना
अशोक चौधरी
मेरठ भारत का एक ऐतिहासिक शहर है। भारतवासियों की ऐसी मान्यता है कि मेरठ रावण की पटरानी मंदोदरी का मायका रहा है। मेरठ से महाभारत काल का भी बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। भरतवंशियों की राजधानी हस्तिनापुर मेरठ में ही है। दुनिया की सबसे पवित्र नदी गंगा और यमुना मेरठ के पूरब और पश्चिम में बहती है। महाभारत युद्ध से पहले कौरवों और पांडवों में सुलह का प्रयास करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण मेरठ में जिस स्थान पर ठहरे वहाँ श्रीकृष्ण द्वारा स्थापित कात्यायनी देवी का मंदिर तथा जहाँ श्रीकृष्ण जी ने शंकर भगवान की पूजा की गोपेश्वर महादेव का मंदिर मेरठ में ही हस्तिनापुर के निकट किला परीक्षितगढ़ में विद्यमान है। महाभारत का युद्ध समाप्त होने के बाद अभिमन्यु के पुत्र सम्राट परीक्षित ने अपनी राजधानी हस्तिनापुर से स्थानान्तरित कर श्रीकृष्ण जी के ठहरने के स्थान पर, जहाँ माता कात्यायनी देवी तथा गोपेश्वर महादेव का मंदिर था, स्थापित की और इसको परीक्षितगढ़ नाम दिया गया। सम्राट परीक्षित को कलयुग का प्रथम सम्राट माना गया है, जिसका जिक्र अथर्ववेद में है। परीक्षितगढ़ मेरठ का ही एक कस्बा है।
आधुनिक भारत के इतिहास में दिल्ली से लेकर सरहिंद तक का क्षेत्र एक शासकीय इकाई के रूप में काफी समय तक रहा है। सन् 730 के आसपास राजा अनंगपाल तँवर प्रथम के द्वारा दिल्ली को अपनी राजधानी बनाकर इस क्षेत्र पर शासन किया गया। दिल्ली से सरहिंद तक के क्षेत्र को अनंग देश के रूप में उस समय जाना जाता था। इस क्षेत्र के स्वामी होने के कारण तँवर राजा को अनंगपाल कहा गया है।
अनंग देश के तँवर शासकों ने सन् 730 में गुर्जर प्रतिहार राजाओं के साथ मिलकर तथा आगे चलकर पृथ्वीराज चौहान के साथ मिलकर विदेशी हमलावरों से इस क्षेत्र की रक्षा के लिए अतुलनीय बलिदान दिये हैं। सन् 1192 में तराईन के द्वितीय युद्ध में दिल्ली के राजा गोविंद राय तँवर के बलिदान के बाद ही मोहम्मद गौरी दिल्ली में प्रवेश कर पाया था।
दिल्ली में सल्तनत काल के बाद मुगल काल से होते हुए जब सन् 1754 में दिल्ली की सत्ता मराठों के हाथ में आ गई तो मुगल बादशाह सिर्फ नाममात्र का रह गया, परन्तु सन् 1761 में अहमदशाह अब्दाली के हाथों मराठा शक्ति पराजित हो गई। सन् 1770 में पुनः मराठा मुगल बादशाह पर काबिज हो गये। सन 1803 में अंग्रेजों ने मराठों को पराजित कर इस क्षेत्र पर अपना अधिकार स्थापित किया। अंग्रेजों ने उस समय का वर्णन करते हुए लिखा है कि मेरठ के पूरब में हरिद्वार से लेकर बुलन्दशहर तक पाँच राजनीतिक परिवार यहाँ मजबूत स्थिति में थे, जिनमें लंढौरा के राजा रामदयाल सिंह, किला परीक्षितगढ़ के राजा नैन सिंह, कुचेसर के राजा तथा बुलन्दशहर के अगौता के पास छतारी के नवाब एवं दादरी के भाटी।
सन् 1804 में गढ़वाल रियासत पर नेपाल के गोरखाओं ने हमला कर दिया था। गढ़वाल के राजा प्रदुम्न शाह ने देहरादून के पास गोरखा सेना से युद्ध किया था। इस युद्ध में लंढौरा के राजा रामदयाल सिंह जी ने 12000 सिपाही अपनी ओर से राजा प्रदुम्न शाह की सहायता के लिए भेजे थे। दुर्भाग्यवश युद्ध में प्रदुम्न शाह पराजित हुए तथा रणक्षेत्र में बलिदान हो गये। राजा प्रदुम्न शाह का पुत्र सुदर्शन शाह राज्य छीन जाने पर अपने महामंत्री हर्षदेव जोशी सहित लंढौरा राज्य में वर्षों तक शरणार्थी बनकर रहे। सन् 1814 में अंग्रेजों की मदद से सुदर्शन शाह ने गोरखाओं को हराकर अपना राज्य वापस ले लिया। अंग्रेजों ने गोरखाओं से संधि कर उनको नेपाल तक ही सीमित कर दिया।
आगे चलकर अंग्रेजों ने लंढौरा रियासत को कई भागों में बांटकर कमजोर कर दिया। सन् 1824 में लंढौरा रियासत के एक ताल्लुके कुंजा-बहादुरपुर के ताल्लुकेदार राजा विजय सिंह ने अपने सेनापति कल्याण सिंह उर्फ कलुवा गूजर के नेतृत्व में अंग्रेजों से युद्ध कर अपने सैकड़ों साथियों के साथ बलिदान दे कर अपने क्षेत्र के प्रति अपना कर्त्तव्य निभाया।
मेरठ के पश्चिम के क्षेत्र में यमुना नदी के किनारे शिवालिक पहाड़ियों से सटे सहारनपुर से लेकर दिल्ली के पास तक का क्षेत्र बेगम समरू के आधिपत्य में था, मेरठ में स्थित सरधना बेगम समरू की राजधानी थी। सन् 1838 में बेगम समरू की मृत्यु हो जाने के कारण मेरठ का पश्चिमी क्षेत्र सीधे अंग्रेजों ने अपने अधीन कर लिया था।
अंग्रेजों ने किला परीक्षितगढ़ के राजा नत्था सिंह की मृत्यु के बाद किला परीक्षितगढ़ रियासत को भी समाप्त कर दिया था।
सन् 1857 में राजा नत्था सिंह के परिवार के गांव पूठी के निवासी राव कदम सिंह तथा राज परिवार के ही बहसूमा निवासी दलेल सिंह व पिरथी सिंह, गांव पांचली खुर्द के निवासी मेरठ सदर कोतवाली के कोतवाल धनसिंह, सरधना के पास के गांव अकलपुरा के ठाकुर नरपत सिंह, बड़ौत के पास बिजरौल गांव के चौधरी शाहमल सिंह, मोदीनगर के पास के सीकरी गांव के सिब्बा सिंह ने 10 मई सन् 1857 को मेरठ से अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष में सेना के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अतुलनीय बलिदान दिए।
10 मई सन् 1857 को मेरठ से शुरू हुई क्रान्ति में मेरठ सदर कोतवाली के कोतवाल धन सिंह कोतवाल के साहसिक कार्य का प्रचार आम जनमानस में हो इसके निमित्त जहाँ सामाजिक कार्यकर्ताओं के द्वारा प्रत्येक वर्ष अमर क्रांतिकारी धन सिंह कोतवाल की स्मृति में विचार गोष्ठी जैसे कार्यक्रम आयोजित किए जाते रहे हैं। वहीं सन् 2008 में भी मेरे द्वारा रचित एक लघु पुस्तिका पाठकों में वितरित कर दी गई थी। सन् 2008 के बाद से आज तक कुछ नये तथ्य प्राप्त होने के कारण पुनः यह लघु पुस्तिका पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत की जा रही है।
यह लेखन मेरठ के 1857 की क्रांति के बलिदानियों और कोतवाल धनसिंह के चरणों में एक छोटी सी श्रद्धांजलि है।
लेखक व सूचना स्रोत
अशोक चौधरी (अध्यक्ष)
प्रतापराव गुर्जर स्मृति समिति, मेरठ
प्राक्कथन
वेदपाल चपराणा
राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त होमगार्ड कमांडेंट
जिला गौतमबुद्ध नगर (उ०प्र०)
जैसा सम्पूर्ण भारत में यह सर्वविदित है कि सन् 1857 का स्वतंत्रता संग्राम का प्रारम्भ मेरठ से हुआ था, परन्तु देश आजाद होने के बाद भी सन् 1857 के क्रांतिकारियों को वो सम्मान प्राप्त नहीं हुआ, जिसके वो अधिकारी थे। सन् 1907 में ही सावरकर जी ने लंदन में 10 मई को सन् 1857 के क्रांतिकारियों के सम्मान में एक कार्यक्रम का आयोजन कर दिया था तथा ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ नाम से एक ग्रंथ भी लिख दिया था। आजादी के बाद से मेरठ में भी प्रत्येक वर्ष 10 मई को सरकारी कार्यक्रमों की खानापूर्ति चली आ रही थी। इस अवसर पर सन् 1857 के बलिदानियों का जिक्र उस तरह से नहीं होता था, जैसा होना चाहिए।
सन् 2002 में मवाना स्टैंड के निकट मेरठ में कोतवाल धन सिंह जी की मूर्ति की स्थापना की गयी। इस अवसर पर ही इतिहास के प्रोफेसर डॉ० सुशील भाटी जी के द्वारा ‘1857 की क्रांति के जनक कोतवाल धन सिंह’ शीर्षक से लिखा चार-पांच पेज का लेख वितरित किया गया। गांव पांचली खुर्द के निवासी डॉ० रोहताश जी के द्वारा भी धनसिंह कोतवाल जी के सम्बन्ध में मेरठ स्थित चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय से पीएचडी की गई, परन्तु डॉ० रोहताश ने उस पीएचडी में क्या लिखा? यह उन तक ही सीमित हो कर रह गया। पीएचडी की प्रति किसी भी सामाजिक कार्यकर्ता को आज तक नहीं मिली।
मैं स्वयं पारिवारिक पृष्ठभूमि से कोतवाल धन सिंह जी के गांव पांचली खुर्द से जुडा हुआ था। मेरे पूर्वजों ने मुझे बताया था कि हम पांचली खुर्द गांव के ही मूल निवासी हैं। सन् 1857 में अंग्रेजों की दमनात्मक कार्रवाई के कारण पांचली खुर्द गांव से विस्थापित होकर खरखौदा के पास सेतकुआं गांव में स्थापित हुए थे। अतः मेरा लगाव भी इस विषय पर स्नातक काल में छात्र राजनीति में सक्रिय होने के कारण लगातार बना रहा था। मेरठ में चल रहे कार्यक्रमों से प्रभावित होकर मेरी भी यह इच्छा हुई कि कुछ प्रयास मेरे द्वारा भी होना चाहिए।
मैं होमगार्ड विभाग में अधिकारी था तथा मेरठ में ही तैनात था। अतः सन् 2010 में मेरे गिलहरी प्रयास से पांचली खुर्द गांव के प्रधान श्री भोपाल सिंह द्वारा ग्राम सभा से धन सिंह कोतवाल होमगार्ड प्रशिक्षण केन्द्र मेरठ के निर्माण के लिए भूमि मिल जाने पर प्रशिक्षण केन्द्र का निर्माण मेरठ में प्रदेश सरकार द्वारा करवा दिया गया। जो कि सन् 1857 की क्रांति से सम्बन्ध रखने वाले किसी क्रांतिकारी के नाम पर पहला सरकारी संस्थान मेरठ में बना।
शासन की मांग पर श्रीमान अशोक चौधरी से कोतवाल धन सिंह जी से सम्बंधित ऐतिहासिक जानकारी ‘प्राप्त कर उत्तर प्रदेश शासन को भेज दी गई। वह इस विषय को लेकर सन् 1998 से मेरठ में होने वाले कार्यक्रम व लेखन में लगे रहे हैं। मेरठ के अमर उजाला व दैनिक जागरण समाचारपत्र में अशोक चौधरी द्वारा तत्कालीन विषयों पर सम्पादकीय पृष्ठ पर पत्र छपते रहते थे। श्री अशोक चौधरी द्वारा सन् 2008 में ‘1857 का स्वतंत्रता संग्राम और कोतवाल धन सिंह’ के नाम से एक लघु पुस्तिका लिखी गई थी।
भारत में भारतीय समाज एक आस्थावान समाज है। इसलिए कोई भी पराक्रम किया गया हो, उससे पहले अपने ईष्ट देव के प्रति निष्ठा भाव व श्रद्धा भाव समर्पण करने का चलन हमेशा रहा है। भगवान राम ने भी रावण पर आक्रमण करने से पूर्व रामेश्वरम में भगवान शिव की पूजा की थी। भगवान शिव हिन्दू समाज के युद्ध के देवता हैं। हर-हर महादेव का जयघोष कर भारतवासियों ने बड़े-बड़े शक्तिशाली शत्रुओं पर हमला कर नाकों चने चबवा दिए हैं। मेरठ में भी कैंट क्षेत्र में भगवान शिव का मंदिर था, आज भी है। इस मंदिर को औघड़नाथ का मंदिर भी कहा जाता है। अंग्रेजों की बंगाल नेटिव इन्फैंट्री के भारतीय सिपाही इस मंदिर में पूजा करने आते थे। इसलिए अंग्रेज इस मंदिर को काली पल्टन का मंदिर भी कहते थे। अपने से कई गुना शक्तिशाली सत्ता के साथ जब भारतवासियों ने संघर्ष करने की ठानी, उस समय उनका मनोबल कमजोर ना हो, उसके लिए काली पल्टन के मंदिर से भगवान शिव का आशीर्वाद भी 10 मई सन् 1857 को भारतवासियों के साथ रहा है।
अब सन् 2024 में अशोक चौधरी द्वारा पहले लिखी पुस्तिका को पहले से अधिक जानकारी उपलब्ध हो जाने के कारण थोड़ा विस्तृत रूप में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है।
मुझे पूर्ण विश्वास एवं आशा है कि अशोक चौधरी द्वारा लिखित यह पुस्तक अमर क्रांतिकारी कोतवाल धन सिंह गुर्जर तथा मेरठ के आसपास सन् 1857 की क्रांति में घटित घटनाओं पर अच्छा प्रकाश डालेगी। इस पुस्तक में मुदित सामग्री से पाठकों का सन् 1857 में मेरठ के क्रांतिकारियों द्वारा जो वीरता व बलिदान किया गया है, उसका पहले से अधिक ज्ञानवर्धन होगा।