जिज्ञासा शांति हेतु प्रस्ताव

जिज्ञासा शांति हेतु प्रस्ताव

सुख हेतु आगे बढ़ने की चर्चा प्रारंभ करने की आवश्यकता क्यों?

प्रत्येक मानव सुख की चाह रखता है — दुःख कोई नहीं चाहता। वह शरीर में स्वास्थ्य, इन्द्रियों में शक्ति, मन में आनन्द, बुद्धि में ज्ञान और अहं में प्रेम के रूप में सुख चाहता है। जबकि इसके विपरीत, जब शरीर रोगग्रस्त हो, इन्द्रियाँ थकी और कमजोर हों, मन चिन्तित हो, बुद्धि भय और अपमान से ग्रसित हो और अहं वियोग की पीड़ा से जर्जर हो — तब यही स्थितियाँ मानव के दुःख का कारण बनती हैं।

यह एक अत्यंत गम्भीर समस्या है, जो आदिकाल से आज तक पूर्ण रूप से हल नहीं हो पाई है, क्योंकि:

अधिकांश व्यक्ति इस ओर ध्यान नहीं देते। वे असहाय की भाँति जो कुछ सामने आता है, उसे झेलते हैं और ऐसे ही जीवन को धकेलते रहते हैं।

कुछ लोग सांसारिक सुख-भोगों में इतने डूबे रहते हैं कि उन्हें साधना की चर्चा निरर्थक प्रतीत होती है। जब जीवन में ठोकर लगती है या परेशानियाँ घेर लेती हैं, तब भी वे सही मार्ग अपनाने की सामर्थ्य नहीं जुटा पाते।

कुछ लोग इतने रुढ़िवादी होते हैं कि दुःख आने पर साधना की चर्चा करते ही कह उठते हैं—

“जब भाग्य में दुःख लिखा है तो मिट ही नहीं सकता।”

वे अपने दुःख का कारण अपने विचार, वाणी और कर्मों की भूल में नहीं खोजते, बल्कि समय, उम्र, रोग, परिस्थिति या दूसरों को दोषी मानते हैं। वे अपने दुःख को बाहरी सत्ता का परिणाम मानकर सहना ही जीवन का उद्देश्य बना लेते हैं। ऐसे लोग न तो कर्म की व्याख्या से ऊपर उठ पाते हैं और न ही भगवान के प्रति समर्पण की भावना या प्रभु कृपा की अनुभूति कर पाते हैं।

कुछ बिरले व्यक्ति ऐसे होते हैं जो साधना के प्रति जागरूक तो हैं, परन्तु मार्गदर्शन के अभाव में जीवन भर भटकते रहते हैं।

इन सबके अतिरिक्त, कुछ भाग्यशाली व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जो प्रभु कृपा से अपने वर्तमान जीवन और भ्रामक मान्यताओं से असंतुष्ट हो जाते हैं। वे वास्तविक कारणों की खोज में व्याकुल हो उठते हैं और गहरी जिज्ञासा एवं आत्म-प्रयत्न के साथ आगे बढ़ते हैं। ऐसे समय में उन्हें किसी मार्गदर्शक का सान्निध्य मिल जाता है, जो साधना का मार्ग दिखाकर उन्हें अखण्ड आनन्द की प्राप्ति तक पहुँचा देता है।

अतः यह निश्चित है कि जब तक व्यक्ति अपने वर्तमान जीवन से असंतुष्ट नहीं होता और अपने दोषों को पहचानकर अपनी पूर्व मान्यताओं पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाता, तब तक साधना का मार्ग अपनाने की प्रवृत्ति जाग्रत नहीं हो सकती।

श्रीरामायण के गूढ़ सिद्धांतों को खोजकर, जीवन में बाधक विकारों को दूर करने की सही विधि अपनाकर — स्वास्थ्य, शक्ति, आनन्द और प्रेम की प्राप्ति की दिशा में गुरुकृपा से जो मार्ग प्राप्त हुआ, वह हृदयनारायण योगी जी के सान्निध्य में स्थापित ट्रस्ट द्वारा साधकों को उपलब्ध कराया गया। योगी जी के विचारों को जीवन में अपनाने के बाद यह अनुभव हुआ कि जब तक मनुष्य अपने दुःखों के मूल कारणों पर प्रश्न नहीं उठाता, तब तक उसके भीतर समाधान की वास्तविक चाह उत्पन्न नहीं होती। बिना कारण को जाने यदि समाधान खोजा भी जाए, तो वह न तो स्थायी होता है और न ही गहन।

सच्चे परिवर्तन के लिए क्रियाओं से पहले विचार और भावनाओं में परिवर्तन अत्यंत आवश्यक है।

अतः जब तक दुःख के कारणों को खोजकर उन्हें भली-भाँति समझ न लें, तब तक साधना की शुरुआत न करें।

सृजक

जनचेतना मिशन

संपर्क सूत्र

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