कालजयी बनने की कला

कालजयी बनने की कला

लघुकथा

कालजयी बनने की कला

पुराने शहर के संग्रहालय में एक बूढ़ा शिल्पकार रोज़ आता था। वह घंटों खड़े होकर उस पत्थर की मूर्ति को निहारता रहता, जो उसने वर्षों पहले तराशी थी।

एक नवयुवक कलाकार ने उससे पूछ लिया,

“बाबा, आपने यह मूर्ति इतनी बार देखी है… क्या आपको इससे अब भी कुछ नया दिखता है ?”

बूढ़ा मुस्कराया,”हाँ बेटा, हर बार मैं इसे देखता हूँ और खुद से पूछता हूँ – क्या मैं समय को हरा पाया ?”

युवक चौंका —”मतलब ?”

बूढ़ा बोला,”हर कलाकार अपने समय का यश चाहता है, लेकिन हर रचना कालजयी नहीं होती। कोई चित्र, कोई कविता, कोई मूर्ति… यदि सौ साल बाद भी किसी के हृदय में कुछ भाव जगा दे, तो समझो वह समय को पार कर गई।”

युवक गंभीर हो गया –

“तो कालजयी बनने की कला क्या है?”

बूढ़ा बोला- “स्वार्थ रहित कर्म, सत्य से जुड़ा भाव और समाज के लिए सृजन — यही कालजयी बनने की कला है। जिसने अपने ‘अहम्’ को नहीं, ‘उपयोग’ को साधा — वही समय से ऊपर उठा।”

उस दिन युवक ने केवल एक ही उत्तर नहीं पाया,बल्कि काल के पार सोचने का दृष्टिकोण पा लिया । कला, शक्ति या संपत्ति नहीं — उद्देश्यपूर्ण कर्म ही व्यक्ति को कालजयी बनाता है।

दृष्टिकोण की व्यापकता

रचनाकार

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प्रस्तुति