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विस्तृत होती आज बुराई,
अच्छाई जग छोड़ रही।
सच की राह कठिनतम होती,
रेल झूठ की दौड़ रही।।
सत्यमेव जयते सब भूले,
झूठों के जयकारे हैं।
स्वच्छ हृदय हैं धक्के खाते,
कलुषित होती होड़ रही।।
रचनाकार
…dAyA shArmA
‘अच्छाई दो कोस और बुराई सौ कोस’ पर एक विमर्श
क्या अब कहावत बदलने का समय आ गया है?
आखिर ऐसा क्यों लगता है? देखें समीक्षात्मक आकलन
भारतीय समाज में कहावतों का विशेष स्थान रहा है। ये कहावतें केवल शब्द नहीं, बल्कि पीढ़ियों के अनुभव, चेतावनी और मार्गदर्शन का सार होती हैं। ऐसी ही एक प्रसिद्ध कहावत है —
“अच्छाई दो कोस और बुराई सौ कोस”।
इस कहावत को समाज को सजग, जागरूक और सशक्त बनाने की सकारात्मक मंशा से कहा गया था।
उद्देश्य यह था कि लोग जानें कि बुराई कितनी तेजी से फैलती है, और इसलिए उसे समय रहते रोका जाए।
लेकिन इस कहावत को नकारात्मक परिप्रेक्ष्य में लेकर समाज ने इसे यथार्थ मान लिया, न कि चेतावनी। परिणामस्वरूप, अच्छाई को धीमी गति और सीमित प्रभाव वाली चीज़ मान लिया गया, और बुराई को एक सामान्य, स्वाभाविक व्यवहार की तरह स्वीकार कर लिया गया।
समाज में परिवर्तन लाने वाली अनेक संस्थाओं, संगठनों और माध्यमों ने भी इसी नकारात्मक पक्ष को अंगीकार कर लिया। जब जिन संस्थाओं पर समाज को दिशा देने की जिम्मेदारी थी, उन्होंने ही बुराई की स्वीकार्यता को अपनी कार्यशैली का हिस्सा बना लिया, तो वह कहावत “माँ का लाडला बिगड़ गया” जैसी हो गई— जहां मंशा तो सही थी, पर उसका अनुप्रयोग अनियंत्रित और परिणामस्वरूप विकृति जनक बन गया।
इसी ग्रहणशीलता का परिणाम है कि आज विश्व भर में नकारात्मक सूचनाओं का प्रसारण तेज़ी से होता है। बुराई की खबरें, विवाद, अपराध, झूठ और सनसनी समाज की चर्चा के केंद्र में हैं, जबकि अच्छाई, सेवा, नैतिकता और सहयोग जैसे गुण हाशिये पर चले गए हैं।
तो अब प्रश्न यह है —
क्या अब इस कहावत को केवल दोहराने की बजाय, चुनौती देने का समय आ गया है?
क्या हमें अब यह नहीं कहना चाहिए कि –
“अच्छाई को सौ कोस तक पहुंचाना हमारी ज़िम्मेदारी है, और बुराई को दो कोस पर ही रोक देना हमारा कर्तव्य”?
अब समय है कि हम इस कहावत की मूल भावना को पुनः स्थापित करें — समाज को सचेत करना, बुराई की गति से सावधान करना, और अच्छाई को प्रचारित करना।
हमें अपनी संस्थाओं, मीडिया, शैक्षणिक संस्थानों और व्यक्तिगत जीवन में अच्छाई को रफ्तार, मंच और सम्मान देना होगा। तभी हम उस असंतुलन को दूर कर सकते हैं जो इस कहावत की गलत व्याख्या से पैदा हुआ है।
समाज को दिशा देने वाली हर आवाज़ को अब यह तय करना होगा —
क्या हम बुराई के सौ कोस की खबरें फैलाते रहेंगे, या अच्छाई के दो कोस को सौ कोस तक पहुंचाने का बीड़ा उठाएंगे?
क्योंकि अब बदलाव की कहावत लिखने का समय आ गया है।
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