सबसे जरूरी तो यह जानना कि हम लोग किसी भी रूप में भ्रम में ना पड़ें। जरा देखें इस कविता को और समझने का प्रयास करें –
विश्वास गया खो आज मनुष्य का अनजाना भय उसे सताता।
भ्रमवश होकर, मानव जग में भय को फिरता भूत बताता।
कभी-कभी ऐसा होता है जो दिखता वैसा नहीं होता।
जब हो जाता ज्ञान सत्य का तब हँसता या नयन भिगोता।
कांटों में ही छुपा मिला है पुष्प मनोहर लाल गुलाबी।
पुष्प नहीं कांटे दिखते हैं जब कोई देखे इसे शराबी।
तम में घिरा मनुष्य जीवन में रस्सी को भी सांप बताता।
भ्रमवश होकर, मानव जग में भय को फिरता भूत बताता।।१।।
एक बात निश्चित जीवन में जो होना वो होकर रहता।
फिर भी मानव उस होने को सोच सोच मन में दुख सहता।
कौन रात ऐसी है जग में दिन नहीं जिसके बाद निकलता।
फिर मानव रजनी काली में क्यूँ सहता है महा विकलता।
पता नहीं दिन निकलेगा भी सोच यही मन में घबराता।
भ्रमवश होकर, मानव जग में भय को फिरता भूत बताता।।२।।
मन में जैसा भाव पलेगा चेहरे पर वैसा झलकेगा।
भाव उदासी बाहर आकर उसके नयनों से ढलकेगा?
सदा सफल वो ही होते हैं जो आशा को गले लगाते।
छोड़ बैठते वो ही मंजिल भाव निराशा जो अपनाते।
इस भय के चक्कर में फंसकर लक्ष्य भेद नहीं मानव पाता।
भ्रमवश होकर, मानव जग में भय को फिरता भूत बताता।।३।।
जाल भ्रम का बड़ा गठीला बड़ी कठिनता से कटता है।
इसी जाल में फंसकर मानव रहता सदा हाथ मलता है।
ईश्वर पर विश्वास संग ही अपने पर विश्वास जरूरी।
भय से नहीं विश्वास डिगाओ भले दिखे कोई मजबूरी।
कर्मों के अनुसार सदा ही मानव जीवन में फल पाता।
भ्रमवश होकर, मानव जग में भय को फिरता भूत बताता।।४।।
रचनाकार
कृष्णदत्त शर्मा ‘कृष्ण’
प्रस्तुति