मनहरण घनाक्षरी एक
मौसम है यह गर्मी का, रवि की हठधर्मी का,
तप रही है धरती, आया जेठ मास है।
खेत भी पड़े हैं खाली, सूखी तरुवर डाली,
दोपहरी में रहती, सड़कें उदास हैं।
देते पंखे गर्म हवा, नहीं है जिनकी दवा,
एसी कूलर का नहीं, होता जी आभास है।
गगन में घन छाये, काले बन जब आये,
रिमझिम बरखा से, तन में उल्लास है।
मनहरण घनाक्षरी दो
धरती रही पुकार, सबका करो श्रृंगार,
मत करो तुम देरी, मेघा आ भी जाओ रे।
सूख गये सब ताल, सूरज दिखता लाल,
काले काले बन आओ, मेघा छा भी जाओ रे।
मोर पपीहा नाचेंगे, दादुर शोर करेंगे,
गीत प्यार का तुम भी, मेघा गा भी जाओ रे।
हरियाली तुम लाओ, मधुर तान सुनाओ,
आशीष जन जन का, मेघा पा भी जाओ रे।
मनहरण घनाक्षरी तीन
माफिया छाये देश में, इस पूरे प्रदेश में,
सभी जगह ये विष, देश में घोल रहे।
चारों ओर भू माफिया, देखो बजरी माफिया,
शिक्षा के भी है माफिया, जहाँ में डोल रहे।
राजनीति को न्याय को, दवा इलाज धर्म को,
रोजमर्रा की चीजों को, पैसों से तोल रहे।
आज ये हर धंधे में, सभी जगह देश में,
संस्कृति के ढोल में, देख ये पोल रहे।
रचयिता
श्योराज बम्बेरवाल ‘सेवक’
मालपुरा
प्रस्तुति