मनोभाव
उपन्यास का मुखपृष्ठ

मनोभाव

मनोभाव

श्रीमती डॉली डबराल जी के नवीनतम लघु उपन्यास ‘पत्थरों के बीच’ को पढ़‌कर कृष्ण के मन में उठे भाव

उपन्यास का मुखपृष्ठ

बीच पत्थरों की लगती है एक सच्ची -सी प्रेम कहानी।
महा लेख व सोच दिया भर इसमें डॉली ज्ञानी ध्यानी।
पढ़‌कर ऐसा लगा है मानो आँखों देखा हाल रहे लख।
गाँव की भाषा बोली का एक मीठा सा स्वाद रहे चख।

जो कुरीतियाँ हैं समाज की उनका सारा दर्द झलकता।
विधवा होना अभिशाप है नीर नयन से दिखा छलकता।
कोई भी विधवा हो उसमें दोष भला क्या है नारी का।
क्यारी में ही सूखापन है दोष भला क्या फुलवारी का।

वक्त नहीं टाले टलता है धनी कभी निर्धन हो जाता।
जिसने खुद रक्खे हैं सेवक एक दिन वो सेवक हो जाता।
कोयला खदानों का सच्चा किस्सा सारा बतलाया है।
कोई नहीं कीमत मानव की धन आगे पंगू पाया है।

जाने कितनी खदानों की महा पीर गाथा गाई है।
बेचारे मजदूरों की भी मजबूरी सब दिखलाई है।
चसनाला का बड़ा हादसा याद इसे पढ़ आ जाता है।
मानव को करनी पर ही तो मानव ठगा हुआ पाता है।

विधवा के देखे सपनों का खड़ा महल भी दिखलाया है।
मन में उठती महा उमंगों को मन में दबती पाया है।
डॉली जी का हृदय कोमल दर्द नारी उभरा पाया है,
ये मात्र कहानी ही नहीं है सच में ये होता आया है?

डॉली जी सा ज्ञान नहीं है फिर भी थोड़ा लिख ही डाला।
वैसा लिखा लगा है जैसा हो कितना ही धौला काला।
डॉली जी के लेखन की तो विधा सदा से रही निराली।
बीच पत्थरों के भी भर दी महा प्रेम की मधुरस प्याली।

ऊँच नीच का भेद आज तक नहिं कभी भी मिट पाया है।
पावन प्रेम मनोहर जाति बंधन में नहीं टिक पाया है।
इस लघु से उपन्यास में कितने पात्र अरु संबंध भरे हैं।
लेकिन सबको बांध सूत्र में बड़े ही रोचक काम करे हैं।

एक भयानक अंत दिखाकर ‌फिर से मोहक अंत दिखाया।
जैसे भी यह अंत हुआ है समझ मात्र ज्ञानी ही पाया।
नित नूतन लेखन कर अनुजा छू लो तुम नीले अम्बर को।
जो भी शब्द लिखोगी वो ही भायेगा निश्चित ईश्वर को।

पत्थरों के बीच समर्पित करके मुझको धन्य किया है।
पावन रिश्ता बहिन भाई का तुमने ये अनुमन्य किया है।
स्वस्थ रहो और मुस्कानों की सदा रखो निर्मल फुलवारी।
साहित्य जगत के चढ़े शिखर पर एक पहचान दिखे बस न्यारी।
कृष्णदत्त शर्मा ‘कृष्ण’

15-10-25