मटकी

मटकी

मटकी

मैं मटकी हूँ चौराहे की,

पर हर राह से जुड़ी हूँ मैं,

सूनी राहों की तन्हाई में

जल-सी भरी पड़ी हूँ मैं।

 

कोई ठोकर मारे तो भी

फिर से जुड़ जाना जानती हूँ,

टूटकर भी मुस्कुराना,

अपनी पहचान मानती हूँ।

 

ना आभूषणों की ज़रूरत,

ना श्रृंगार की आस मुझे,

मेरा सौंदर्य मेरी मिट्टी है,

यही है गहना ख़ास मुझे।

 

जो देख सके इस गहराई को,

वही मेरा मोल समझ पाए,

वरना मैं तो बस एक मटकी,

जो हर नज़र में बिक जाए।

 

पर जो छू सके मेरे मन को,

मेरे मौन का अर्थ पढ़ ले,

बैठकर उसी के संग मैं

बातें करती हूँ मन की गहराई से..

रचनाकार

महेश शास्त्री

प्रतिक्रिया

बंद बोतलों के इस युग में,

मटकी का कोई मोल नहीं है।

कौड़ी की कीमत लाखों में,

हीरा अब अनमोल नहीं है ।।

 

भोलेपन को मूर्खता,

समझ रहे हैं लोग।

धूर्तपना है विद्वत्ता,

सरल हृदयता रोग।।

DAyA shArmA

चौराहे की मटकी जब बोलेगी

तो राज सभी अपने वो खोलेगी

किस किस ने उससे पीया ठंडा जल

किस किस ने ठुकराया सब तोलेगी।

👍👍

श्योराज बम्बेरवाल

प्रस्तुति