मानसिक अस्थिरता के दो चेहरे
मासूम की मौत और एक स्त्री का टूटा आत्मबल
आज का समाज जिस तेज़ रफ्तार से आगे बढ़ रहा है, उसी रफ्तार से हमारे भीतर की संवेदनाएँ, संवाद और मानसिक संतुलन पीछे छूटते जा रहे हैं। मानसिक अस्थिरता अब केवल व्यक्तिगत समस्या नहीं रह गई है, बल्कि यह एक सामाजिक महामारी का रूप लेती जा रही है, जो वयस्कों के साथ-साथ मासूम बच्चों और भावनात्मक रूप से टूट चुकी महिलाओं को भी अपनी चपेट में ले रही है।
हाल ही में उत्तर प्रदेश से सामने आई दो घटनाओं ने इस सच को भयावह रूप में उजागर किया है। पहली घटना बिजनौर जिले के किरतपुर कस्बे की है, जहाँ एक 11 वर्षीय बच्चा, शादान उर्फ शाहरुख, अपने पिता की एक डांट से इतना आहत हुआ कि उसने आत्महत्या जैसा गंभीर कदम उठा लिया। दूसरी घटना बागपत जिले के बिजरौल गांव की है, जहाँ पिंकी नामक एक महिला ने घरेलू कलह और उपेक्षा से टूटकर अपनी मासूम बेटी को ज़हर पिलाकर खुद भी आत्महत्या की कोशिश की।
शाहरुख की चुप मौत
जब मासूम मन जवाब नहीं दे सका
शादान एक सब्जी विक्रेता का बेटा था, जो मुस्लिम फंड पब्लिक स्कूल में पढ़ता था। एक दिन स्कूल न जाने पर पिता द्वारा डांटे जाने के बाद वह घर से चला गया और कुछ समय बाद पास के एक खाली प्लॉट में दीवार से फंदे से लटका मिला। यह घटना एक बार फिर साबित करती है कि बच्चों का मन अत्यंत संवेदनशील होता है और छोटी-छोटी बातें भी उनके मानसिक स्वास्थ्य को गहराई से प्रभावित कर सकती हैं। क्या हम उन्हें पर्याप्त संवाद, समझ और सहारा दे रहे हैं?
पिंकी की टूटन
जब भावनात्मक दर्द सीमा पार कर जाए
दूसरी ओर, पिंकी की कहानी उस स्त्री की है, जो अपनी दो साल की शादी, घरेलू तनाव और उपेक्षा के बीच पूरी तरह टूट चुकी थी। जब उसकी डेढ़ साल की बेटी को एक पारिवारिक शादी में पिता ने अपने साथ नहीं रखा, तो उसने अपनी बच्ची को कीटनाशक पिलाकर खुद को भी खत्म करने का प्रयास किया। यह घटना केवल एक पारिवारिक झगड़ा नहीं, बल्कि वर्षों से जमा हुए भावनात्मक शोषण और मानसिक दमन का विस्फोट है।
छोटे मन, भारी बोझ
चाहे वह शादान हो या दिव्यांशी – दोनों ही उम्र के उस पड़ाव पर थे जहाँ उन्हें केवल स्नेह, संरक्षण और संवाद की ज़रूरत थी। एक बच्चे के लिए माता-पिता का व्यवहार, उनकी उपस्थिति और अपनापन जीवन की सबसे बड़ी सुरक्षा होती है। लेकिन जब यह सुरक्षा ढहने लगे, तो वह अपने दर्द को कैसे व्यक्त करेगा?
समस्या नहीं, समाज की पुकार है मानसिक स्वास्थ्य
इन दोनों घटनाओं को महज़ ‘घरेलू विवाद’ या ‘डिप्रेशन’ कह कर टालना आसान है, लेकिन यह नज़रिया हमारी सबसे बड़ी चूक है। मानसिक स्वास्थ्य अब केवल एक चिकित्सकीय मुद्दा नहीं, बल्कि सामाजिक जिम्मेदारी है। हमें स्कूलों में बच्चों के साथ भावनात्मक बातचीत को प्राथमिकता देनी होगी। महिलाओं को केवल ‘कर्तव्यों’ से नहीं, बल्कि उनके ‘अधिकारों’ और मानसिक ज़रूरतों से भी जोड़ा जाना चाहिए।
समाधान की ओर पहला क़दम
समाज को अब जागना होगा – स्कूलों में मानसिक स्वास्थ्य की शिक्षा, घरों में संवाद का माहौल और समाज में सहानुभूति की संस्कृति विकसित करना अत्यावश्यक है।
यदि हमने अब भी इन संकेतों को नहीं समझा, तो आगे की पीढ़ियाँ एक ऐसे समाज में जीने को मजबूर होंगी जहाँ इंसान अपनी पीड़ा के साथ अकेला, असहाय और खामोश रह जाएगा।
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