जीवन की हर बात का सीधा अर्थ न निकालें
सोचें-समझें और निर्णय करें।
ऐसा अक्सर होता है कि जब हम किसी के घर जाते हैं और वहाँ पर छोटे बच्चे ठीक से हमको अभिवादन नहीं करते या बात नहीं करते अथवा हमारे सामने उल्टा-पुल्टा बोल देते हैं तो हमें बहुत बुरा लगता है और मन में तुरत आता है कि
“इस घर में तो अब कभी नहीं आना चाहिए।”
इतना ही नहीं हम अपनी वैचारिकी को तत्काल संदेश तैयार करने में संलग्न कर देते हैं और कुछ ऐसा सामने आता है –
और फिर दिमाग का खेल आरम्भ होता है और अपने साथ साथ अन्य संदेश पढ़ने वालों के दिमाग में भी यह आने लगता है कि सही तो है—
“जरूर इनके घर के बड़े मेरी बुराई करते होंगे, तभी तो बच्चों में मेरे लिए इज्ज़त नहीं है!”
अब ज़रा तनिक रुककर सोचिए कि यही नहीं
“क्या जीवन में हर बात हर बार सच होती है?”
जरूरी तो नहीं।
बच्चे आखिर बच्चे होते हैं। हर चीज़ को वो तुरंत नहीं समझ सकते। कई बार वो किसी और बात से चिढ़े हुए भी होते हैं। कभी किसी खेल में हार गए होते हैं, या बस मूड में नहीं होते। कई बार उन्हें ठीक से सिखाया ही नहीं गया होता कि
“बड़ों से कैसे बात करनी है?”
और, अनेक अवसरों पर वो बस शर्मीले होते हैं।
अब सोचिए, अगर कोई बच्चा आपको ‘नमस्ते’ नहीं करता, तो क्या इसका मतलब यह है कि
“उसके घर वाले आपकी बुराई करते हैं?”
नहीं न?
हम हर बात का सीधा मतलब नहीं निकाल सकते। अगर कोई बच्चा आदर से बात नहीं करता, तो उससे बात करके या प्यार से समझाकर अथवा उसे समय देकर चीज़ें सुधारी जा सकती हैं। लेकिन अगर हम एक ही बार की बात पर सोचने लगें कि
“ये लोग हमारे खिलाफ हैं”, तो यह तो हमारी जल्दबाज़ी होगी ना।
परिपक्वता (समझदारी) यही है कि किसी भी बात को ध्यान में रखकर हम एकदम गुस्से में या आवेश में आकर फैसला ना कर लें, बल्कि सोचें कि हो सकता है वास्तविकता कुछ और ही हो।
अब, दूसरी बात—इज्ज़त मांगी या जबरन नहीं ली जा सकती। इज्ज़त अर्जित करनी पड़ती है। जब हम खुद दूसरों से प्यार से बात करते हैं, उनको इज्ज़त देते हैं, तो धीरे-धीरे बच्चे भी हमसे वैसा ही व्यवहार सीखते हैं।
इसलिए अगली बार अगर ऐसा कुछ भी हो तो सीधे सीधे मन ना बना लें कि
“अब इस घर में कभी नहीं जाना”, बल्कि थोड़ा सोचें, समझें और फिर फैसला करें। क्योंकि हर चीज़ का मतलब वही नहीं होता जो हमें तुरंत दिखता है।
और! अपनी समझदारी का परिचय गलत परिपाटी बनाने में नहीं उचित निर्णय लेकर दें।
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