सावन

सावन

सावन

सावन के मौसम ने आकर मन को भी सावन कर डाला।

भरकर सूखे ताल-तलैया धरती माँ को तर कर डाला।

 

तपते जेठ असाढ मास में याद बहुत आता है सावन।

फूट-फूट हृदय में जाते सावन के सब गीत सुहावन।

कभी-कभी पर इन्सानों को तड़पा देता ये ही सावन।

अठखेली करता है बूंदें छुपा स्वयं में ये ही सावन।

लेकिन फिर भी बूंदें बरसा कष्ट सभी इसने हर डाला।

भरकर सूखे ताल-तलैया धरती माँ को तर कर डाला।।१।।

 

एक मास ये सावन वाला भोले शंकर का होता है।

जो भी इसमें शिव को भजता उसका दुःख दूर होता है।

तीजो जैसा पर्व अनूठा इस पावन सावन में होता।

नृत्य गान और सजना-धजना नारी का ज्यादा ही होता।

दादुर ध्वनि ने सावन को लख सबको ही मोहित कर डाला।

भरकर सूखे ताल-तलैया धरती माँ को तर कर डाला।।२।।

 

फूट कचरिया सैन्द बैठकर गाँवों में टान्डों पर खाते।

चला गोफिया बजा कनस्तर मकी खेत से चिड़ी उड़ाते।

सावन हंसता अच्छा लगता अच्छी लगती हैं फुहारें।

पर जब सावन रूठ ऐंठता मच जाती हैं चीख-पुकारें।

कभी-कभी मोहक सावन ने जीना भी दूभर कर डाला।

भरकर सूखे ताल-तलैया धरती माँ को तर कर डाला।।३।।

 

सावन तुम नहीं कभी रूठना नहीं कभी नदियों में बसना।

फटे नहीं कहीं तेरा बादल तेरा केवल अच्छा हंसना।

हर कर्मों की सीमा होती नहीं कभी तुम लांघो सीमा।

नहीं मूसलाधार गिराओ बरसो भू पर धीमा धीमा।

कभी-कभी निज मोहकता को कर तुमने काला कर डाला।

भरकर सूखे ताल-तलैया धरती माँ को तर कर डाला।।४।।

 

मास अंत में रक्षा बंधन पर्व सदा तुम ही लाते हो।

रक्षा वाला सूत्र बहिन से तुम ही तो आ बंधवाते हो।

रक्षा का ये सूत्र बांधकर भी क्यूँ बन जाते हो भक्षक।

प्यारी-प्यारी बूंदें बरसा बने रहो तुम केवल रक्षक।

तुम शीतल हो कभी-कभी पर गर्म स्वयं को क्यूं कर डाला।

भरकर सूखे ताल-तलैया धरती माँ को तर कर डाला।।५।।

कृष्णदत्त शर्मा ‘कृष्ण’