शब्दों का साधक

शब्दों का साधक

शब्दों का साधक

अनिरुद्ध बाहर से एक साधारण युवक था—नौकरी, दोस्त और हँसी-मज़ाक से भरा जीवन। लेकिन भीतर उसका मन एक अलग ही दुनिया में जीता था। रात के सन्नाटे में जब सब सो जाते, वह अपनी डायरी खोल लेता। उसकी कलम से बहते शब्द कभी बचपन की यादें बनते, कभी समाज की कड़वी सच्चाइयाँ।

वह चौंक उठता—“ये किसकी कहानी है?” और जैसे कोई अदृश्य स्वर कहता—“ये तुम्हारी नहीं, तुम्हारे आसपास की अनकही व्यथाएँ हैं। तुम तो केवल माध्यम हो।”

धीरे-धीरे अनिरुद्ध समझ गया कि लेखक होना केवल लिखना नहीं, बल्कि दूसरों के दुख-दर्द में जीना है। उसकी आँखें भीग जातीं जब वह किसी माँ की बेबसी लिखता, उसका दिल तड़प उठता जब वह किसी जुदाई की कथा कहता।

लोग अब भी उसे सामान्य समझते थे, पर उसकी कलम उसके लिए तपस्या थी। और जब किसी पाठक ने कहा—“तुमने मेरी आत्मा को शब्द दे दिए,” तब अनिरुद्ध ने जाना कि यही उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है।

लेखन उसके लिए अब शौक नहीं, साधना था—समाज का दर्पण और आने वाली पीढ़ियों के लिए दीपक। सचमुच, वह शब्दों का साधक था।

रचनाकार

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