शिक्षक दिवस पर विशेष

शिक्षक दिवस पर विशेष

बात तब की है जब मैं शास्त्री द्वितीय वर्ष में अध्ययनरत था, तभी हमारे पाठ्यक्रम में “मनोवृत्तिसुधारम्” नाम की एक नई पुस्तक सम्मिलित की गई। भीतर ही भीतर उसे पढ़ने की बड़ी उत्कंठा थी, किंतु उसकी जटिलता के कारण हमारे अध्यापक उसे स्पष्ट रूप से पढ़ाने में असमर्थ थे। इस जिज्ञासा ने मुझे एक दिन प्राचार्य जी के कक्ष तक पहुँचा दिया। मैंने उनसे निवेदन किया— “गुरुजी, यह नई पुस्तक हमारे लिए कठिन है, कोई इसे सही प्रकार से नहीं पढ़ा पा रहा।”

प्राचार्य जी ने स्नेह भरे स्वर में कहा— “महेश, तू तो अजमेर में ही रहता है। सत्यनारायण जी को जानता है न? वही हाथीभाटा पीपल वाली गली में रहते हैं। बड़े विद्वान हैं, इस पुस्तक के रचयिता भी वही हैं। जा, उन के पास चले जा वो अच्छा पढ़ा देंगे…..।

उनके शब्द सुनकर मैं सीधे उस गली की ओर बढ़ चला। जब पूछते–पूछते उनके घर पहुँचा तो एक अद्भुत दृश्य देखा। एक छोटी-सी कोठरी में पुस्तक-समूह से घिरे हुए एक वृद्ध साधु-से पुरुष बैठे थे। शरीर झुर्रियों से आच्छादित, पर नेत्रों में अपूर्व तेज। ऊपर से गहन तन्मयता, और नीचे झुकी हुई गर्दन—मानो सारा जीवन ही ग्रंथों में विलीन हो गया हो।

मैंने पहले गुरु माता को प्रणाम किया और फिर उनके संकेत पर उनके पास पहुँचा। श्रद्धा से झुककर प्रणाम करते हुए मैंने निवेदन किया— “गुरुजी, आपकी लिखी हुई पुस्तक हमारे पाठ्यक्रम में है, किंतु कठिनता के कारण हम समझ नहीं पा रहे। यदि आपकी कृपा हो तो मैं यहीं आकर आपसे पढ़ लूं।

मेरे ये शब्द सुनते ही गुरुजी ने बड़े हर्ष से कहा— “अरे, बेटा! कोई तो मेरे पास पढ़ने आया! अवश्य पढ़ाऊँगा।”

उस क्षण का आनंद अवर्णनीय था। गुरुजी इतनी सहजता, हास्य और स्नेह से पढ़ाते थेकि उससे व्याकरण, काव्यशास्त्र या शब्दकोश की अलग से आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी। उनकी व्याख्या अद्वितीय होती—हर पंक्ति मानो जीवन्त हो उठती। उन्होंने मुझे वर्षों तक अष्टाध्यायी, रसगंगाधर, साहित्यदर्पण और कालिदास के सम्पूर्ण काव्य ऐसे पढ़ाए कि अध्ययन साधना का रूप ले लिया।

आज वे गुरुजी इस धरती पर नहीं हैं, किंतु उनकी स्मृतियाँ मेरे हृदय में जीवित हैं। चारों ओर जहाँ भी दृष्टि जाती है, उनकी उपस्थिति अनुभव होती है। ऐसे स्नेहिल, विद्वान और जीवन-परिवर्तन करने वाले गुरु का मिलना अत्यन्त दुर्लभ है।

शिक्षक दिवस के इस पावन अवसर पर मैं अपने पूज्य गुरुजी का पुण्यस्मरण कर स्वयं को धन्य अनुभव करता हूँ।

गुरुकृपावनत

महेश शास्त्री

प्रस्तुति