ग़ज़ल
।।कहर।।
प्रकृति ढहा रही है देखो अपना अब कहर
बर्बाद हो रहे हैं जिससे गांव ढाणी शहर।
पेड़ काटे नदियों का रुख दिया है हमने मोड़
प्रकृति के संगीत की कर दी है बंद बहर।
अपने हित में जोड़ा तोड़ा और मरोड़ा है
इसमें पूरी तरह घोल दिया है हमने जहर।
बाॅंध बना डाले हमने पानी के रास्ते में बड़े बड़े
पर बहुत संकरी बनाई है उससे जाने वाली नहर।
विज्ञान का तो रखा नहीं हमने अब तक ध्यान
धार्मिक ज्ञान की चलाई है अब ये नई नई लहर।
मानव धर्म तो भूल गये संस्कारों का किया है नाश
संग अपनों का छोड़ मोबाइल पर बिताते हैं चारों पहर।
याद आ जायेगी नानी, मुंह ताकते रह जायेंगे
जब संस्कृति के ह्रास की यहां होगी दोपहर।
नज़र अंदाज़ मत कीजिए किसी भी घटना को
अपने हाथों संस्कृति को बचाइए जरा सा ठहर।
प्रतिक्रिया
जहां पर अत्यल्प भी मेरी समझ है वहां मैं सर्वदा बोलने का प्रयास करता हूं “अहो! रूपमहो ध्वनि: ” वाले सिद्धान्त का अनुयायी में कथमपि नहीं बनता, मैं मेरी रचनाओं में भी समीक्षा एवं सुधारात्मक परामर्शो को अक्षरशः अङ्गीकार करता आया हूं। आपकी ग़ज़ल में ग़ज़ल संविधान शिथिल हो रहा है कृपया ग़ज़ल संविधान के अनुगुण लेखनी को प्रेरित करें एवं शब्द शिल्प पर विशेषावधान केन्द्रित करें।
श्री महेश शास्त्री
🙏🙏🙏🙏
संशोधित ग़ज़ल
।।कहर।।
देखो प्रकृति ढहा रही अब अपना कहर है
जिससे बर्बाद हो रहे शहर के शहर है।
पेड़ काट नदियों का रुख दिया हमने मोड़
प्राकृतिक संगीत की कर दी बंद बहर है।
अपने हित में जोड़ा तोड़ा और मरोड़ा
इसमें पूरी तरह घोला हमने जहर है।
माना बाॅंध बनाये है हमने बड़े बड़े
मगर हमने नदी को बना डाला नहर है।
विज्ञान का तो अब तक भी नहीं हमको ख्याल
बस धर्म बदलने की चलाई अब लहर है।
अपने सारे ही संस्कार भूला बैठे
अब मोबाइल पर बिताते चारों पहर है।
याद आ जायेगी सभी ही अपनी नानी
जब संस्कृति ह्रास की होगी दोपहर है।
प्यार से प्रकृति से मिलकर चलेंगे अगर हम
तभी होगी हम सब पर ईश्वर की महर है।
श्योराज बम्बेरवाल ‘सेवक’मालपुरा
श्रृंगार छंद
।। बेटियाँ।।
बेटियों से रोशन संसार
इन्हीं से दुनिया है गुलजार ।
बेटियाँ होती पावन डोर
उड़े तितली बन चारों ओर।
बाॅंटती घर घर में ही प्यार
बेटियों से रोशन संसार।
बेटियाँ माॅं बहनों का रूप
सास पत्नी धरती की धूप।
इन्हीं से महके घर परिवार
बेटियों से रोशन संसार।
बेटियाँ करती सारे काम
खास कोई हो चाहे आम।
पेड़ प्यारा ये छायादार
बेटियों से रोशन संसार।
बेटियाँ बनकर बहता नीर
पिता के दिल की हरती पीर।
सदा ये करती है उपकार
बेटियों से रोशन संसार।
बेटियाॅं ईश्वर का वरदान
बचाओ इनका निज सम्मान।
नहीं समझो इनको तुम भार
बेटियों से रोशन संसार।
श्रृंगार छंद
।।बाल गीत।।
सभी हम बालक है नादान
समझ हमको देना भगवान।
धरा पर खूब लगा कर पेड़
सजायें भू खेतों की मेड़।
करें भारत पर हम अभिमान
समझ हमको देना भगवान।
बने हम जैसे थाने दार
सभी चोरों का हो उपचार।
दिलाओ हमको ऐसा ज्ञान
समझ हमको देना भगवान।
बेटियाॅं क्यों अब तक लाचार
असुरक्षित क्यों है अब भी नार।
नहीं क्या जग को इसका भान
समझ हमको देना भगवान।
यहां के नेता क्यों बदनाम
परेशां क्यों है जनता आम।
आपका करते जब हम मान
समझ हमको देना भगवान।
धर्म पर लड़ते क्यों है लोग
लगाते नफ़रत का क्यों रोग।
सभी जन है जब एक समान
समझ हमको देना भगवान।
हाथ जोड़ करते हैं प्रणाम
हमें बतलाओ तेरा धाम।
वहीं आये फिर घर निज जान
समझ हमको देना भगवान।
श्योराज बम्बेरवाल ‘सेवक’मालपुरा
श्रृंगार छंद
।।जल धार।।
बरस कर बहता जल बन धार,
नदी नालों का पाकर प्यार।
भरे जब कुएं बावड़ी ताल,
बदल लेती अपनी फिर चाल।
मानता कब है अपनी हार,
बरस कर बहता जल बन धार।
खेत में लहराता जो धान,
महर ये इसकी ही है जान।
पेड़ को देता नव उपहार,
बरस कर बहता जल बन धार।
कभी धोती है सबके पाप,
नाम से गंगा बनकर आप।
कभी जमुना बन देता तार,
बरस कर बहता जल बन धार।
यही जीवन है रखना ध्यान,
सदा करना इसका सम्मान।
नहीं करना इस पर तकरार,
बरस कर बहता जल बन धार।
बचाना जल आये जब द्वार,
चाहते हो गर निज उद्धार।
भले तुम नर हो या फिर नार,
बरस कर बहता जल बन धार।
दोहे
धीरे धीरे छा रहा, कलयुग का ये रंग।
दुनिया भर में लग गई, मर्यादा को जंग।।
मानव अब तो कर रहा, दुनिया भर के ढंग।
नव फैशन की आड़ में, दिखलाता है अंग।।
रह जाओगे देख कर, तुम भी यारों दंग।
आने वाला समय जब, दिखलायेगा रंग।।
मर्यादा अब हो रही, नव पीढ़ी की भंग।
आजादी के नाम पर, करती सबको तंग।।
प्रीत करो दिल खोलकर, रहना गर हो संग।
नफ़रत दिल से त्याग दो, खूब बजाओ चंग।।
रचनाकार
श्योराज बम्बेरवाल
मालपुरा
प्रस्तुति