‘सोना’ बहुमूल्य है, पर सांसें नहीं!

‘सोना’ बहुमूल्य है, पर सांसें नहीं!

‘सोना’ बहुमूल्य है, पर सांसें नहीं!

आज सोने की कीमत मानो बुलेट ट्रेन की रफ़्तार पकड़ चुकी है। दिन-प्रतिदिन सोने का भाव हमारी कल्पना से कहीं अधिक बढ़ता जा रहा है। मैं यह समझ नहीं पा रहा हूं कि यह वृद्धि बड़े पैमाने पर सोने की बढ़ती मांग के कारण हो रही है या फिर धनिकों द्वारा सोने के भंडारण के कारण।

खैर, हमारा आत्मिक भाव तो आत्म-संतुष्टि वाला है। हमें सोने से क्या लेना-देना! हमारी प्रवृत्ति तो सदा चीजों को जानने और समझने की रहती है। आज आइए, इसी ‘सोने’ को अपना विषय बनाते हैं।

प्राचीन भारत और सोना

प्राचीन भारतवासियों में सोने का अधिक महत्व नहीं था। सिंधु सभ्यता से लेकर यूरोपीय व्यापारियों के आगमन तक भारतवासी मुख्यतः तांबा और टिन का प्रयोग करते रहे। भारतवासियों ने मिश्रित धातुओं का उपयोग अत्यंत कुशलता से किया। आभूषण, बर्तन और सिक्के आदि बनाने में भी इन मिश्र धातुओं का प्रयोग होता रहा।

धीरे-धीरे सिंधु वासियों ने सिंधु नदी के किनारों से सोने को पहचानना और एकत्र करना शुरू किया। परंतु नदी के पानी से बहकर आने वाला सोना बहुत कम मात्रा में होता था। इस कारण सिंधु सभ्यता में सोने का व्यापक प्रचार-प्रसार नहीं हो सका। फिर भी सिंधु वासी धीरे-धीरे सोने के गुणों को समझने लगे थे। कुछ संभ्रांत स्त्री-पुरुषों ने आभूषण निर्माण में सोने का प्रयोग आरंभ किया, वहीं कुछ व्यापारी वस्तु-विनिमय में इसका उपयोग करने लगे। औषधियों में भी सोने का हल्का-फुल्का प्रयोग होने लगा था।

मिस्र (Egypt) से आरंभ हुई सोने की यात्रा

इस संसार में सर्वप्रथम मिस्रवासियों को सोने के प्रयोग का ज्ञान हुआ। मिस्र के पूर्वी रेगिस्तानों में सोना प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था। मिस्र के व्यापारियों ने ही सोने को विश्व के अन्य हिस्सों तक पहुंचाया। व्यापारिक गतिविधियों के चलते मिस्र का सोना धीरे-धीरे यूरोप पहुंचा।

बाद में अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और चीन की धरती में भी सोने के बड़े भंडार मिले। जब यूरोपियों ने अमेरिका की खोज की, तब वहां से विशाल मात्रा में सोना यूरोप आने लगा। रेशम मार्ग (Silk Route) से चीन का सोना भी यूरोप पहुंचा। इस प्रकार यूरोप सोने का एक प्रमुख केंद्र बन गया।

जब साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद का दौर आया, तो यूरोप की समृद्धि अपने चरम पर थी। कहा जाता है कि तब यूरोप के लगभग 60% लोग सोने के बर्तनों में भोजन करते थे। स्त्री-पुरुष और यहां तक कि बच्चे भी सोने के मुकुट और सोने से जड़े वस्त्र धारण करने लगे थे।

भारत – सोने की चिड़िया

आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि भारत में सोना यूरोप से पहुंचा। यूरोप और अमेरिका में भारतीय मसालों की भारी मांग थी। इस मसाला व्यापार से यूरोपीय व्यापारियों पर मानो धन की वर्षा होने लगी। पुर्तगाली, फ्रांसीसी, डच और ब्रिटिश व्यापारी मसालों के बदले भारत को प्रचुर मात्रा में सोना भेजने लगे।

धीरे-धीरे भारत में इतना सोना एकत्र हो गया कि सामान्य जीवन जीने वाले स्त्री-पुरुष और बच्चे भी सोने के आभूषणों से लद गए। यहाँ तक कि घुमक्कड़ जनजातियाँ भी सोने के आभूषण पहनने लगीं। यूरोप का एक बड़ा हिस्सा भारत के पास आ गया और भारत “सोने की चिड़िया” कहलाने लगा।

सोने का पलटता समीकरण

धीरे-धीरे यूरोप में सोने की कमी होने लगी। यूरोपवासियों को यह समझ में आने लगा कि मसाला व्यापार में वे भारत के हाथों लुट गए हैं। प्रसिद्ध दार्शनिक और राजनीतिज्ञ वाल्टेयर ने तो यहां तक कह दिया था कि “भारत ने यूरोप को लूट लिया है।”

परिस्थितियाँ बदलीं। भारत में अंग्रेज़ी सत्ता स्थापित हुई और भारत का सोना पुनः यूरोप जाने लगा। आज़ादी के बाद विश्व बाज़ार में नए समीकरण बने। अब सोना विश्व की सबसे बड़ी बहुमूल्य पूंजी बन गया। यूरोपीय देश अपनी तकनीकें बेचने लगे, जिसके कारण भारत के सोने का एक बड़ा भाग पुनः यूरोप पहुंच गया।

वर्तमान स्थिति

सोना बहुमूल्य पूंजी होने के कारण अमीरों का इससे लगाव लगातार बढ़ता गया। आज भारतीय सोने का बड़ा हिस्सा लोगों द्वारा संरक्षित कर भंडारित किया जा चुका है। नोटबंदी के बाद तो बड़े पैमाने पर सोने के भंडारण की प्रवृत्ति और भी तेज़ हो गई।

अब सोना सामान्य व्यक्ति की पहुंच से बाहर जा चुका है। यह समझना आवश्यक है कि “सोना कोई मूलभूत आवश्यकता नहीं है।” सोने के बिना भी आरामदायक जीवन जिया जा सकता है।

ऐसी विषम परिस्थितियों में सोने को भूल जाना ही बेहतर है। समाज समझौतों पर टिका है—तो एक समझौता यह भी कर लें कि हम सोने से कोई नाता नहीं रखेंगे!

रचनाकार

मौसम सिंह

रामपुर मनिहारान

प्रस्तुति