ठोकर
रुकावट नहीं, संतुलन का निमंत्रण
आचार्य निखिल जी महाराज अपने संबोधन में कहते हैं—
“ठोकर लगने संबंधी चेतावनी का यह आशय बिल्कुल नहीं होता कि आप चलना छोड़ दें, अपितु इसका यह मतलब होता है कि आप संतुलित होकर चलना सीख जाएं।”
तो ये केवल शब्द नहीं, बल्कि जीवन की गहराइयों से निकला हुआ अनुभव-सार है।
हम अक्सर जीवन में किसी भी ठोकर को एक नकारात्मक घटना की तरह देखते हैं—कुछ ऐसा, जो हमें आगे बढ़ने से रोक देता है। लेकिन आचार्य निखिल जी का दृष्टिकोण इससे बिल्कुल उलट है। उनके लिए ठोकर एक रुकावट नहीं, बल्कि एक संकेत है कि अब हमें और सतर्क, और संतुलित होकर आगे बढ़ना है।
चेतावनी का उद्देश्य डर पैदा करना नहीं होता, बल्कि हमें सजग करना होता है। जैसे एक पिता अपने बच्चे को सड़क पार करते समय सावधान रहने की हिदायत देता है, वैसे ही जीवन भी हमें ठोकर देकर यह सिखाता है कि कहां और कैसे कदम रखना है।
यह सोच केवल अनुभव से आती है—जब हम खुद गिरते हैं, संभलते हैं, और फिर उठकर उसी रास्ते पर और बेहतर तरीके से चलना सीखते हैं। आचार्य निखिल जी की यह पंक्ति हमें याद दिलाती है कि जीवन की ठोकरें हमें तोड़ने के लिए नहीं, बल्कि हमें बनाने के लिए होती हैं।
तो अगली बार जब जीवन कोई ठोकर दे, तो ठहरें नहीं—बल्कि संतुलन साधें, और उसी दृढ़ता से आगे बढ़ें। क्योंकि रास्ता उन्हीं का होता है, जो ठोकर के बाद भी चलना नहीं छोड़ते।
सूचना सूत्र
आचार्य निखिल जी महाराज
पाठ्य स्वरूप परिवर्तन और विस्तार
प्रस्तुति