भूमिका
कविता एक सरल और भावनात्मक विधा है, जो लेखक के सीधे अनुभव और भावनाओं को व्यक्त करती है। प्रथम प्रयास को संशोधन की दरकार हो सकती है। और! संशोधन कविता को पेशेवराना स्पर्श है, जो शब्दों की लय, छंद और दृश्य प्रभाव पर अधिक ध्यान देता है, जिससे कविता अधिक प्रभावशाली और कलात्मक हो जाती है।
यह अंतर काव्य रचना की समर्पित आत्मा और पेशेवर कौशल दोनों की स्पष्ट अभिव्यक्ति है।
खो गईं वो चिठ्ठियाँ (नवसृजित)
विलुप्त होती पत्र विधा में,
लिखने के सलीके छुपे थे।
शुरुआत रामा-श्यामा से या,
प्रणाम-नमस्ते से होती थी।
बीच में होती थी खास खबर,
जैसे बाल जन्म की खुशियाँ।
माता-पिता का हाल-चाल।
खेतों में लहलहाती फसल।
कभी बेमौसम दु:खद समाचार।
अब सब कुछ सिमट गया है।
छोटे से नीले कागज में।
काग़ज़ के टुकड़े को नवयौवना।
सीने से लगाकर ध्यान से पढ़ पाती|
कभी कभी गम के आंसू बहाती।
लेकिन माता-पिता का संबल था|
बच्चों का भविष्य, गाँव का गौरव
डाकिया डाक लाया, खुशियाँ छाईं।
कोई पढ़ कर सुनायेगा|
अनपढ़ को कागज के टुकड़े को
छूकर अहसास हो जाता।
अब तो युग मोबाइल का।
स्क्रीन पर अंगूठा ठहरा।
स्पेस भर जाये तो
सब कुछ स्वमेव डिलीट।
सब कुछ कैद हो गया।
छ: इंच के मोबाइल में।
समाचार सिमट गये मैसेज में।
और इंसान सिमट गया लालच में।
वाह! रे इंसान, वाह! रे इंसान।
अब आया समय पाती मुहिम का।
जिसनें पत्र विधा को पुनर्जीवित किया।
धन्य है डॉ. नेगी जी की कलम।
रचयिता
शिवराज जी कुर्मी
कविता के उन्नयन की प्रक्रिया
किसी कविता का उन्नयन एक कला है, जिसमें संपादक की सूक्ष्म दृष्टि और संवेदनशीलता का महत्वपूर्ण योगदान होता है। जब एक संपादक किसी कविता को पढ़ता है, तो वह केवल शब्दों को नहीं देखता, बल्कि भाव, विचार, और उनकी प्रस्तुति की प्रभावशीलता को भी परखता है।
पहला कदम होता है कविता की मूल भावना को समझना। संपादक यह सुनिश्चित करता है कि कवि की अभिव्यक्ति सही तरीके से पाठकों तक पहुंचे। इसके लिए वह भाषा की सरलता और प्रवाह पर ध्यान देता है। जटिल और अस्पष्ट शब्दों को सरल, प्रभावी और अर्थपूर्ण शब्दों से बदला जाता है ताकि कविता का संदेश स्पष्ट हो।
दूसरा महत्वपूर्ण पहलू है कविता की लय और छंद। यदि कविता में कहीं लय बाधित हो रही हो, तो संपादक उसमें उचित परिवर्तन करता है। यह परिवर्तन इस प्रकार होता है कि कविता की मूल भावना और सौंदर्य प्रभावित न हो।
संपादक यह भी देखता है कि कविता में उपयोग किए गए प्रतीक, रूपक और अलंकार प्रभावी हैं या नहीं। यदि कहीं कोई भाव कमजोर प्रतीत होता है, तो उसे गहराई और सजीवता प्रदान करने के लिए सुझाव दिए जाते हैं।
इसके अलावा, संपादक कविता की संरचना और शीर्षक पर भी ध्यान देता है। शीर्षक ऐसा होना चाहिए जो पाठकों को आकर्षित करे और कविता के मुख्य विषय को प्रकट करे। कविता के प्रारंभ और समापन को भी अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए संपादक सुझाव देता है।
अंत में, संपादन का उद्देश्य कवि की मौलिकता को बनाए रखते हुए कविता को पाठकों के लिए अधिक अर्थपूर्ण, सुंदर और प्रभावशाली बनाना होता है। यह एक ऐसा सहयोग है, जो कविता को एक साधारण रचना से उत्कृष्ट कृति में बदल सकता है।
नवसृजित कविता का संशोधित स्वरूप
विलुप्त गया हो चलन चिट्ठी का जिसमें लेखन विधा छुपी थी।
रामा-श्यामा और नमस्ते कह कर अपनी बात लिखी थी।
खास खबर जो भी थी घर की सब खुशियों के साथ लिखी थी।
मात पिता का हाल लिखा था शिशु जन्म की खबर मिली थी।।
लहलहाती फसलों की खुशियाँ और दु:खद बेमौसम रोना।
चिट्टी कोई मिली रसीली जिसको सीने पर रख सोना।
नव वधुओं का प्रेमपत्र को खड़ी स्वयं द्वारे पर होना।
मात पिता की बीमारी सुन बच्चों का था धीरज खोना।
गाँवों में तो समाचार का केवल चिट्ठी ही थी संबल।
नहीं डाकिया जब तक आवे मन सबका रहता था बेकल।
जब तक चिट्ठी पढ़ी ना जावे अनपढ़ को भारी था पल-पल।
चिट्ठी ही तो मिली मिटाती अन्तस में उठती सब हलचल।
मोबाइल ने आकर अब तो चिट्ठी के रस को पी डाला।
कहाँ भरा है मोबाइल में चिट्ठी वाला मधु रस प्याला।
मोबाइल में लिखा तुरत ही नष्ट उंगलियों ने कर डाला।
चिट्ठी सदा सहेजी रहती मोबाइल में भरा घुटाला।
जीवन भर की एक धरोहर होती थी प्रेमी को पाती।
पाती होती है स्थायी याद सदा आती दिन राती!
नेताओं की चिट्ठी अब तक नवजीवन में है बतियाती।
मोबाइल खर्चा करवाता चिट्ठी खर्च नहीं करवाती।
चिट्टी वाले युग को तो अब दिखते सभी पुरातन कहते।
चिट्ठी के भावों को तजकर नई रोशनी में हैं बहते।
चिट्ठी वाले बोल मनोहर गम हृदय का सहते रहते।
मोबाइल की करतूतों को आज सभी दिखते हैं सहते।
संशोधक की चिट्ठी पर पूर्वरचित कविता
चिट्ठियाँ आती नहीं हैं
चहचहाती चिट्ठियाँ इस जग को अब भाती नहीं हैं।
मौन हैं जो चिट्ठियाँ वो चिट्ठियाँ आती नहीं हैं।।
जो न वाणी कह सकी थी चिट्ठियों ने कह दिया था।
विरह अग्नि पीर को भी चिट्ठियों ने सह लिया था।।
चिट्ठियाँ तो पूर्व जैसा मान अब पाती नहीं हैं।
मौन हैं जो चिट्ठियाँ वो चिट्ठियाँ आती नहीं हैं।।१।।
शब्द एक-एक चिट्ठियों का यों लगे था ज्यों हो दर्पण।
शब्द था साकार किन्तु कल्पना में था समर्पण।।
यादें मन से उन पलों की आज तक जाती नहीं हैं।
मौन हैं जो चिट्ठियाँ वो चिट्ठियाँ आती नहीं हैं।।२।।
सरहदों पर चिट्ठियाँ ही जिन्दगी सी बाँटती हैं।
वीर जवानों के विरह की बदलियों को छाँटती हैं।।
किन्तु अब तो फोन आते चिट्ठियों आती नहीं हैं।
मौन हैं जो चिट्ठियाँ वो चिट्ठियाँ आती नहीं हैं।।३।।
पृष्ठ सब ही चिट्ठियों के आज तक मैंने संजोये।
कौन जाने स्वप्न कितने आज तक मैंने हैं ढोये ।।
गीत जो पहले थे गाये चिट्ठियाँ गाती नहीं हैं।
मौन हैं जो चिट्ठियाँ वो चिट्ठियाँ आती नहीं हैं।।४।।
चिट्ठियाँ लाती खुशी भी चिट्ठियाँ लाती हैं गम भी।
चिट्ठियाँ जीवन सँवारें और करतीं आँख नम भी।।
मूक मन की कोई भी आवाज़ अब आती नहीं है।
मौन हैं जो चिट्ठियाँ वो चिट्ठियाँ आती नहीं हैं।।५।।
चिट्ठियों ने तख़्त बदले ताज बदले राज बदले।
सोच बदली, कर्म बदले धर्म बदले काज बदले।।
कोई भी दिल दर्द को अब चिट्ठी सहलाती नहीं है।
मौन हैं जो चिट्ठियाँ वो चिट्ठियाँ आती नहीं हैं।।६।।
था कभी ऐसा ज़माना चिट्ठियों में जान बसती।
चिट्ठियों का मान होता चिट्ठियों में आन बसती।।
फोन से डरती हैं चिट्ठी कुछ भी कह पाती नहीं है।
मौन हैं जो चिट्ठियाँ वो चिट्ठियाँ आती नहीं हैं ।।७।।
ज़िन्दगी की शाम में भी चिट्ठियों की चाह अधूरी।
कौन जाने कब हो पूरी ज़िन्दगी की चाह अधूरी।।
बिन लिखे तो लेखनी भी शांत हो पाती नहीं है।
मौन हैं जो चिट्ठियाँ वो चिट्ठियाँ आती नहीं हैं ।।८।।
संशोधक और अंतिम कविता के रचयिता
श्री कृष्णदत्त शर्मा कृष्ण
प्रस्तुति