वर्तमान दौर
जिधर देखता मैं कवि ही कवि हैं,
मगर सुनने वाले कहीं अब नहीं हैं।
शब्दों की माला सजाते सभी हैं,
मगर भाव गहरे मिलाते नहीं हैं।
चमकती कलम है, कहानी भी खोई,
नहीं भाव गहरे तो ,कविता भी रोई।
सृजन की ये माटी सजी तो सही है,
मगर भावना फिर भी ठहरी वही है।
जो मन को जगा दे, वो स्वर अब कहाँ है,
जो दिल को रुला दे, असर वो कहाँ है।
कवि तो कई हैं, मगर भाव खोया,
सुनने की चाहत का मन भी है सोया।
क्या रचना का संसार चल सा गया है,
कदम राहों में क्या मचल सा गया है।
लय गीत का क्या बिगड़ सा गया है,
कहां भाव कविता का बह सा गया है।
रचयिता
महेश शास्त्री
छायाचित्र क्रिएटर
चैट जीपीटी
प्रस्तुति