व्याख्यान (दो दिवसीय)

व्याख्यान (दो दिवसीय)

निमंत्रण

विवरण

राजा जयसिंह आर्ट एंड कॉमर्स कॉलेज अक्कलकोट, जिला सोलापुर (महाराष्ट्र) में दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में भोपाल की डॉक्टर लता अग्रवाल ‘तुलजा’ (सोलापुर उनकी जन्मस्थली है) ने विषय विशेषज्ञ के रूप में अपनी प्रस्तुति दी। इस संगोष्ठी का विषय था ‘साहित्य में विभिन्न संप्रदायों के संतों की दार्शनिक विचारधारा’। इस अवसर डॉ. लता ने ‘साहित्य में महाराष्ट्र की वारकरी संत परंपरा’ पर अपना वक्तव्य दिया।

अतिथियों का शुभागमन

डॉ. लता अग्रवाल ‘तुलजा’ ने भारतीय साहित्य में संतों की वारकरी परंपरा पर चर्चा करते हुए अपने संबोधन में कहा कि

“वारकरी संप्रदाय का महाराष्ट्र साहित्य में अपूर्व योगदान है।  वारकरी संप्रदाय यात्रा के माध्यम से अपने ईष्ट का भजन-कीर्तन करते हुए निकलते हैं और यात्रारंभ का एक विशेष वार या दिन तय होता है। इसीलिए इसे वारकरी संप्रदाय कहते हैं। वारकरी संप्रदाय के ईष्ट विट्ठल हैं जो कृष्ण और विष्णु का अवतार हैं। इनको हम वैष्णव संप्रदाय का ही एक हिस्सा कह सकते हैं। चूंकि विट्ठल का स्थल चंद्रभागा नदी का तट पंढरपुर है, अतः यह वारकरी संप्रदाय ढोल, बाजे, झांझ आदि वाद्ययंत्रों के साथ यात्रा करते हुए पंढरपुर चंद्रभागा नदी के तट पर आकर एकत्र होते हैं और भजन-कीर्तन करते हुए अपने देव की साधना करते हैं। ये वर्ष में दो बार आषाढ़ और कार्तिक की एकादशी को पंढरपुर अवश्य पहुंचते हैं।”

आपने वारकरी संप्रदाय के संतों की चर्चा करते हुए बताया कि “वारकरी संतों की मौलिकता है उनका मूल्यपरक सिद्धांतों का अनुपालन एवं वांग्मय दृष्टि । यही कारण है मराठी साहित्य में जहां एक ओर हमें लावणी मिलती है तो दूसरी ओर अभंग (छंद)भी। उनकी भाषा का अपना स्तर है। इस परंपरा के संतों पर बात करते हुए आपने जिन वारकरी संतों की चर्चा की उनमें, संत तुकाराम, संत नामदेव, संत ज्ञानेश्वर, संत एकनाथ के साथ-साथ स्त्री वारकरी संतों कान्होपात्रा एवं जनाबाई के अभंगों का उदाहरण देते हुए उनकी दार्शनिक दृष्टि शोधार्थियों के समक्ष रखी। कान्होपात्रा का तो संपूर्ण जीवन ही मानव जाति के लिए प्रेरक है। एक गणिका के गर्भ से जन्म लेकर कान्होपात्रा ने अपने जीवन को कुछ इस तरह जिया कि उनकी सद्गति विट्ठल के चरणों में पंढरपुर में हुई। यह साबित करता है कि कमल कीचड़ में रहकर भी निर्मल रहता है। इस तरह संत गाडगे महाराज जो मूर्ति पूजा के विरोधी थे किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि ईश्वर के प्रति उनकी आस्था नहीं थी। उन्होंने भक्तों के लिए धर्मशालाएं बनवाईं, उनके भोजन की व्यवस्था से लेकर स्कूल, औषधालयों का निर्माण कराया। इतना ही नहीं पंढरपुर यात्रा के दौरान भक्तों द्वारा नदी के तट से लेकर मंदिर परिसर तक जो भी गंदगी फैलाई जाती गाडगे महाराज स्वयं अपने अनुयायियों के साथ वहां की सफाई करते किंतु मंदिर के अंदर कभी नहीं जाते। मैं समझती हूँ वे कर्म को ही पूजा मानते थे और इस पूजा को निष्ठापूर्वक करते थे।

इन समस्त वारकरी संतों का उद्देश्य समाज में समकालीन विसंगतियों यथा अंधविश्वास, चमत्कार ,छुआछूत जैसी विसंगतियों के प्रति समाज को जागरूक करना था और उन्होंने अपना यह कार्य बहुत ईमानदारी से किया। इसी के साथ इस दौर में समाज में छुआछूत भी व्याप्त थी। उस दौर में शिक्षा के साथ-साथ वेद पाठ तथा भगवान के मंदिर में प्रवेश को लेकर यह अधिकार कुछ ही समुदाय के तक केंद्रित थे। एक तरह से कहें कि इन स्थानों पर कुछ जाति और वर्ण की एक सत्ता बनी हुई थी। वारकरी संप्रदाय ने इस बंदिश को तोड़ते हुए आम जनता को भक्ति से जोड़कर इन बेड़ियों को तोड़ा है। यह आम जनता के लिए बहुत ही सम्मान का विषय रहा है, उनके मन में श्रद्धा और आस्था मजबूत हुई कि हम भी भगवान के प्रिय भक्त हो सकते हैं।

इसके अलावा वारकरी संप्रदाय के संत की अगर हम बात करें तो वे शंकराचार्य के अद्वैतवाद के प्रबल समर्थक रहे हैं। तुलसी माला धारण करना, जीवन के अंतिम सत्य को जानने के साथ-साथ छात्र जीवन में ब्रह्मचर्य का पालन करते थे। शुद्ध शाकाहारी एवं ‘श्री राम कृष्ण हरि’ इनका मंत्र जाप है। इस रामकृष्ण हरि मंत्र जाप को भी अगर हम कुछ इस तरह समझ सकते हैं कि राम और कृष्ण हरि का ही रूप हैं। यह कोई और नहीं एक ही ईश्वर है। इस तरह वारकरी संप्रदाय एकेश्वरवाद में गहरी आस्था रखता है।

उन्होंने आम समाज को एक और अंधकार ओर चमत्कार से आगाह किया वहीं दूसरी ओर वे सभी कर्मवाद के प्रबल समर्थक रहे हैं। उनके अनुसार स्वर्ग और नर्क जैसी कोई अवधारणा है ही नहीं कर्म के आधार पर ही स्वर्ग और नरक हम इसी संसार में निर्मित करते हैं।”

इस अवसर पर देश के कई हिस्सों से विद्वजन उपस्थित थे जिनमें सोलापुर विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति डॉ. आयरिश स्वामी, डॉ. काशीनाथ अंबलगी (बैंगलुरु), डॉ. विष्णु सरवदे (हैदराबाद), डॉ. दत्तात्रेय मुरुमकर (मुंबई), डॉ. गायकवाड़ (बामनगांव), डॉ. बाला साहेब (पूना), डॉ. लता अग्रवाल ‘तुलजा’ (भोपाल), डॉ. बलिराम भुक्तारे (उदगीर), डॉ. अनिल सालुंखे (सोलापुर), डॉ. पंडित बत्रे जेऊर, डॉ. भगवान अघटराव (मंड्रप), डॉ. बिराजदार, डॉ. दुद्दे (सोलापुर) से विषय प्रवर्तक के रूप में उपस्थित रहे।

इस दो दिवसीय संगोष्ठी में हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैन, वारकरी, वसव आदि दर्शन पर खुलकर चर्चा हुई।

आयोजक मंडल में महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ. आडवीतोट, प्रो. पाटिल, वाघमारे, गाडगिल आदि उपस्थित रहे।

यह संगोष्ठी प्रधानमंत्री उच्च शिक्षा परियोजना के अंतर्गत खेड़गी परिवार के सहयोग से सम्पन्न हुई।

सूचना स्रोत

डॉ. लता अग्रवाल ‘तुलजा’ (भोपाल)

प्रस्तुति

ऐसा हो शिक्षण संस्थान

जो  रखे  हरसंभव ध्यान