श्रद्धा के पुष्प

श्रद्धा के पुष्प

श्रद्धा-सुमन अर्पण

श्री सतपाल दौसा जी के प्रति

सूख चुके हैं वे फूल, जिन्होंने वर्षों तक सुरों की बगिया को अपनी खुशबू से महकाया था। आज मंच सूना है, पर स्मृतियाँ गूंज रही हैं—श्री सतपाल जी ‘दौसा’ की वह अनुपम छवि, जिनकी गायकी में देहात की माटी की सोंधी खुशबू और फ़िल्मी गीतों का रंगीन रचाव एक साथ बहता था।

वे मंच पर आते थे और जैसे ही गाते—चौगर्दे सन्नाटा पसर जाता, रागनी में रमा जनमानस हर शब्द में डूब जाता। महाभारत की कथा हो या किसी कोयल-सी मीठी ऐतिहासिक झलक, उनके सुरों में जीवन बोलता था। उन्होंने गाने को केवल कला नहीं, एक सामाजिक संवाद बनाया। हर बात को इतनी सहजता से खोलकर समझाया मानो श्रोता कोई बालक हो और वे एक आत्मीय गुरु।

श्री सतपाल जी का स्वभाव ही उनकी सबसे बड़ी विशेषता था—न्यारा, सादा, परंतु पूर्ण प्रभावशाली। मिलनसारिता उनकी आदत नहीं, उनकी पहचान थी। उनका स्वर केवल ध्वनि नहीं, भावना था—जो दिलों में उतरता और वहीं बस जाता।

हिंदुस्तान के गाँव-गाँव, घर-घर में उनकी आवाज़ पहुँची—जैसे कोई मोहिनी कोयल किसी दरख़्त पर बैठी राग छेड़ रही हो। उनके कंठ में तर्जों का भंडार था, सात सुरों की सरगम उनकी आत्मा में लहराती थी। जब वे आलाप लेते, कानों में मिश्री घुल जाती थी।

आज जब वे हमारे बीच नहीं हैं, एक शून्य है जो शब्दों से नहीं भरा जा सकता। उनके जाने की टीस न केवल परिवार, मित्रों या श्रोताओं को है, बल्कि संगीत की आत्मा भी एक सूना कोना महसूस कर रही है। सतीश खटाना जैसे मित्रों की आँखें पूछती हैं—

“कैसे मुखड़ा मोड़ गए?”

आज के गायकगण जब मंच पर आते हैं, उनके प्रति श्रद्धा से शीश झुकाते हैं। क्योंकि सतपाल जी ‘दौसा’ केवल एक गायक नहीं थे—वे एक युग थे, जो सुर, संस्कार और सादगी से रचा गया था।

शत-शत नमन।

सूख गये वो फूल आज जो बगिया महकाया करते

सतपाल दौसा मंच के ऊपर कुछ ऐसा गाया करते

चौगरदे सन्नाटा पसरे राग अनूठा गाते थे

देहाती और फ़िल्मी धुनों में चौखा रंग जमाते थे

महाभारत की ठेठ रागनी भरके जोश सुनाते थे

मीठी वाणी कोयल की ज्यूँ में इतिहास बताते थे

एक -2 बात साफ़ खोलके हमको समझाया करते

न्यारा था स्वभाव निराला न्यारा था अंदाज जुदा

न्यारी राह रंगत सारी न्यारी थी आवाज जुदा

मिलनसार व्यवहार बताया सबते रीत रिवाज जुदा

सादगी से गावण का भई न्यारा नखरा नाज जुदा

फ़िल्मी और देहाती सबमे रंग जमाया करते

हिंदुस्तान के हर घर में इनकी वाणी गूंजे थी

ऐसे लगे जनु दरख्त ऊपर मोहनी कोयल कूजे थी

तर्जों का भंडार भरया धुन न्यारी -2 सूझे थी

सात सुरों की सरगम कंठ में होय तरंगित जूंझे थी

कानो में मिश्री घुलजा जब अलाप उठाया करते

बिलख रहे नर नार गमों कहाँ तड़पता छोड़ गए

लाग्या ना अंदाज हमे तुम पता नहीं किस औड़ गए

यारों प्यारों घरवालों से जाणे क्यों रिश्ता तोड़ गए

सतीश खटाना रह्या ठग्या सा कैसे मुखड़ा मोड़ गए

आजकाल के गावनिये सब शीश झुकाया करते

रचयिता

मास्टर सतीश खटाना

भूमिका सृजन

चैट जीपीटी द्वारा

प्रस्तुति