कविताओं से समझ

भूमिका

‘प्रथम श्रोता’ शीर्षक से सजी श्री कृष्णदत्त शर्मा ‘कृष्ण’ की यह कविता केवल एक श्रोता की खोज नहीं, बल्कि उस आदर्श मनुष्य की तलाश है जो सहनशीलता, समर्पण और भावनात्मक समझदारी का प्रतीक हो। यह कविता वक्ता और श्रोता के मध्य संबंधों की बारीकी को उजागर करती है – जहां कहना जितना सरल है, सुनना उतना ही कठिन।

कवि अपने भीतर के अनुभवों, संवेदनाओं और उलझे हुए शब्दों को किसी के सामने रखने की आकांक्षा रखता है, परंतु वह प्रथम श्रोता कौन होगा? कौन होगा जो बिना पूर्वग्रह, आलोचना या अहंकार के साथ उसकी बातों को सुनेगा, समझेगा और उनके भावार्थों को आत्मसात करेगा?

यह रचना उस श्रोता की बात करती है—

जो सहनशीलता की मूरत है,

जो कटु शब्दों में भी भाव खोज सकता है,

जो केवल सुनने के लिए नहीं, समझने के लिए उपस्थित होता है।

इस भूमिका के माध्यम से हम यह भी समझते हैं कि सच्चा संवाद तभी संभव होता है जब वक्ता में विनम्रता हो और श्रोता में ग्रहणशीलता। कवि ने समाज में मौजूद उस मानसिकता पर भी करारा व्यंग्य किया है, जहां हर कोई बोलना चाहता है लेकिन सुनना कोई नहीं चाहता।

यह कविता स्वयं से एक सवाल है — “क्या हम केवल वक्ता हैं, या कभी श्रोता भी बन पाए हैं?”

और यदि किसी रचना में शब्द उलझे हैं, भाव कठिन हैं, तो उन्हें सुलझाने का धैर्य हमारे भीतर है या नहीं?

“प्रथम श्रोता” केवल कविता नहीं, यह आत्मचिंतन का अवसर है।

प्रथम श्रोता

अपने गीत सुनाऊँ किसको प्रथम श्रोता कौन बनेगा?
अगर शब्द कोई लिखा है उल्टा उस‌को सीधा कौन करेगा?

कवि कवयित्रियां ज्ञानी ध्यानी जगह जगह ही मिल जाते हैं।
जिनसे मिल और बातें करके सुमन हृदय के खिल जाते हैं।
पर इनमें वक्ता के गुण हैं नहीं चाहता कोई सुनना।
सुनना इनको ऐसे लगता जैसे हो निज सिर को धुनना।
इन वक्ताओं की नगरी में गीत ये उल्टे कौन सुनेगा। अगर
अगर शब्द कोई लिखा है उल्टा उस‌को सीधा कौन करेगा?

प्रथम श्रोता जो बनता है सहनशीलता उसका गह‌ना।
शब्द कोई कड़वा तीखा पड़ता उसको खुश हो सुनना।
सुनते सुनते नहीं कभी भी वो श्रोता कहीं जा पाता है।
लेकिन सच है वो ही श्रोता शब्द समझकर हर्षाता है।
समझ न आता सुननेवाला पुण्य कर्म ये कौन करेगा?
अगर शब्द कोई लिखा है उल्टा उस‌को सीधा कौन करेगा?

गर श्रोता केवल श्रोता है द्वेष-ईर्ष्या पास न आवे।
अगर भाव उसमें वक्ता के द्वेष-ईर्ष्या गले लगाते।
अच्छे श्रोता इस दुनिया में बड़ी कठिनता से मिलते हैं।
सच पूछो तो पावन हृदय केवल उनके ही खिलते हैं।
सोच रहा हूँ शब्द मेरे सुन किसका हृदय सुमन खिलेगा।
अगर शब्द कोई लिखा है उल्टा उस‌को सीधा कौन करेगा?

हर कोई वक्ता यही चाहता ताली श्रोता खूब बजावे।
ताली की इस मधुर ध्वनि में झूम झूम वो वक्ता जावे।
तुम वक्ता तब ही अच्छे हो गर श्रोता के गुण हैं तुम में।
सहनशीलता भाव भरा है नहीं ईर्ष्या अवगुण तुम में।
जब में ऐसी बातें करता बातें मेरी कौन सुनेगा?
अगर शब्द कोई लिखा है उल्टा उस‌को सीधा कौन करेगा?

 

याद विगत की

मन विचलित सा हो जाता जब याद विगत आ जाता है।

बचपन से अब तक का जीवन सम्मुख आ मुस्काता है।

 

बचपन के वे खेल खिलौने और घरोंदे मिट्टी के।

मोटी-मोटी दीवारों से बने हुए घर मिट्टी के।

पीली मिट्टी गोबर से सब लिपे पुते से आंगन थे।

ऐसा लगता प्रेम मनोहर बरसाते वे प्रांगण थे।

बरसातों में टपका छप्पर गीत अभी तक गाता है।

बचपन से अब तक का जीवन सम्मुख आ मुस्काता है।।१।।

 

बचपन जो है गाँव में बीता कोमलता थी भरी हुई।

कोरे उर में थी सबके प्रति प्रेम भावना भरी हुई।

फर्श बिछाकर भूमि पर ही बच्चे लिखते पढ़ते थे।

सपना नहीं कोई पलता था पढ़ने को ही पढ़ते थे।

लिखा कलम सरकंडे की से तखती पर दिख जाता है।

बचपन से अब तक का जीवन सम्मुख आ मुस्काता है।।२।।

 

बड़े हुए तो मीलों चलकर विद्यालय में जाते थे।

माँ के हाथों बनी रोटियाँ ताजी ही ले जाते थे।

भरी दुपहरी सर्दी-गर्मी रिमझिम बारिश आती थी।

लेकिन मौसम की मनमर्जी बाधक नहीं बन पाती थी।

पेड़ छाँव में रुक-रुक चलना याद आज भी आता है।

बचपन से अब तक का जीवन सम्मुख आ मुस्काता है।।३।।

 

आपाधापी शहरों जैसी कभी गाँव में दिखी नहीं।

द्वेष भावना छल बल की वहाँ कोई कहानी टिकी नहीं।

लेकिन अब आधुनिकता ने आ सत्य से किया किनारा है।

सीधा-सच्चा धर्म-कर्म का मानव बना बिचारा है।

भौतिकता में ही अब मानव चरम-चरम सुख पाता है।

बचपन से अब तक का जीवन सम्मुख आ मुस्काता है।। ४।।

 

अधर्म कर्म जो भी जन करता चैन नहीं वो पाता है।

जब भी करो धर्म की बातें मानव नैन चुराता है।

ईश करे अब हर मानव में मानवता का डेरा हो।

उसके जीवन में ना कोई दानवता का फेरा हो।

पर ये सुन्दर सपना मेरा टूटा सा ही पाता है।

बचपन से अब तक का जीवन सम्मुख आ मुस्काता है।।५।।

 

कृष्णदत्त शर्मा ‘कृष्ण’

31-5-25

 

पल

बीते पल वापिस कब आते मात्र याद में रह जाते हैं।

कभी-कभी कुछ पल जीवन की अमर धरोहर बन जाते हैं।

 

हर पल की कीमत है भारी एक-एक पल है सदा अमोली।

जिसने इसका मोल न जाना उसकी रहती खाली झोली।

पल को जिसने रखा समेटे नहीं बिखरने उसको देता।

सदा सहेजे उर में रखता मान सदा ही उसको देता।

अनछुये जीवन के कुछ पल यादों के घन बन जाते हैं।

कभी-कभी कुछ पल जीवन की अमर धरोहर बन जाते हैं।।१।।

 

जो भी मानव मधुर पलों को बना रागिनी घूम रहा है।

वो ही मानव वर्तमान और विगत पलों में झूम रहा है।

श्वांस और पल दोनों बन्धु प्रेम सदा आपस में करते।

मानव तो लड़‌ता रहता है पर ये भाई कभी न लड़ते।

नहीं रुठने पल को देना ये जल्दी ही तन जाते हैं।

कभी-कभी कुछ पल जीवन की अमर घरोहर बन जाते हैं।।२।।

 

पल तो सदा सरल होता है द्वेष-ईर्ष्या हम ही भरते।

पल पल झगड़ रहे जीवन में प्रेम नहीं हम पल को करते।

दु:खद पलों को सोच-सोचकर कभी-कभी मन पछताता है।

क्यूँ नहीं मान किया उस पल का नीर नयन में भर लाता है।

लेकिन पल जो सुखद रहे हैं वो अन्तर में मुस्काते हैं।

कभी-कभी कुछ पल जीवन की अमर धरोहर बन जाते हैं।।३।।

 

अच्छा बुरा नहीं पल होता पल केवल पल ही होता है।

कभी कोई पल धीर बंधाता और कोई धीरज खोता है।

आओ पल जो दिये ईश ने उन्हें सार्थक बना दिखायें।

हर पल ही हम खुद भी रीझें दूजो में रीझापन लाएं!

फिर तो सब पल हर जीवन में प्रेम मनोहर क्षण लाते हैं।

कभी-कभी कुछ पल जीवन की अमर धरोहर बन जाते हैं।।४।।

श्री कृष्णदत्त शर्मा ‘कृष्ण’