विचारार्थ

आखिर कौन हैं वो?

कुदरत के रंगों को बदरंग करने पर आमादा हैं जो?

दृष्टिकोण की व्यापकता

मानव सभ्यता ने अपनी यात्रा आरंभ की थी प्रकृति के सहचर के रूप में। नदियाँ, पर्वत, जंगल, ऋतुएँ, पशु-पक्षी — सब जीवन का अभिन्न हिस्सा थे। लेकिन आज वही मानव अपने द्वारा बनाए गए तंत्रों और प्रवृत्तियों के कारण कुदरत के रंगों को बदरंग करने पर आमादा है। यह प्रश्न केवल पर्यावरणीय संकट का नहीं, बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में मूल्यों, संबंधों और लक्ष्यों को अर्थहीन करने वाली मानसिकता का भी है।

जटिल होती जीवन-यात्रा और लक्ष्य निर्धारण

आज का मनुष्य जितना अधिक विकल्पों और साधनों से घिरा है, उतना ही लक्ष्यहीन भी प्रतीत होता है।

शिक्षा का मकसद ज्ञानार्जन से अधिक नौकरी और पैकेज तक सीमित हो गया।

रिश्ते आत्मीयता से अधिक दिखावे और उपयोगिता पर टिक गए।

राजनीति सेवा से अधिक सत्तालोलुपता का पर्याय बन गई।

विज्ञान और तकनीक सुविधा तो दे रहे हैं, परंतु उनके दुष्परिणाम जीवन को अस्थिर बना रहे हैं।

दृष्टांत

कृषि क्षेत्र को देखिए। हरित क्रांति ने तत्कालीन समय में खाद्यान्न संकट को टाल दिया, किंतु अत्यधिक रासायनिक खाद और कीटनाशक प्रयोग ने मिट्टी की उर्वरता, जल की गुणवत्ता और किसानों के स्वास्थ्य को गहरा नुकसान पहुँचाया। अल्पकालिक लाभ ने दीर्घकालिक संकट को जन्म दिया।

दोष सिद्धि की उलझन

जब कोई समस्या सामने आती है तो समाज और व्यवस्था अक्सर “दोष सिद्धि” में उलझ जाती है। दोष किसका है — सरकार का, जनता का, कंपनियों का, या तकनीक का? इस बहस में समस्या की जड़ तक पहुँचने और समाधान खोजने की गति धीमी हो जाती है।

दृष्टांत

सोशल मीडिया पर झूठी खबरें (फेक न्यूज़) फैलने की समस्या लीजिए। दोष किसका है?

प्लेटफार्म का एल्गोरिद्म?

उसे शेयर करने वाले उपयोगकर्ता?

या वह मानसिकता जो बिना सत्यापन के किसी भी बात पर विश्वास कर लेती है?

स्पष्ट है कि दोष केवल एक का नहीं बल्कि सामूहिक है।

कुदरत के रंग कैसे बदरंग हो रहे हैं?

1. प्राकृतिक स्तर पर — प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई।

2. सामाजिक स्तर पर — परंपरागत मूल्यों का विघटन, आपसी विश्वास में कमी।

3. मानसिक स्तर पर — तनाव, अवसाद, और तुलना की संस्कृति।

4. तकनीकी स्तर पर — कृत्रिम बुद्धिमत्ता और मशीनों का अंधाधुंध प्रयोग बिना नैतिक दिशा के।

दृष्टांत

शहरों में बच्चों का बचपन अब खुले मैदान और गलियों की खेल-खिलखिलाहट से कटकर मोबाइल और स्क्रीन तक सिमट गया है। यह बदरंग भविष्य का संकेत है।

निवारक उपाय

व्यक्तिगत स्तर

अपने तीन मूल्यों (जैसे सत्यनिष्ठा, सहानुभूति, संतुलन) को स्पष्ट कीजिए और निर्णय इन्हीं पर आधारित कीजिए।

सूचना स्वास्थ्य विकसित करें — कोई खबर या ज्ञान साझा करने से पहले उसे जाँचिए।

प्रकृति के साथ समय बिताइए — प्रतिदिन पेड़-पौधों, खुली हवा, और मौन से जुड़ाव।

लक्ष्य निर्धारण में छोटे कदम उठाइए — जैसे

“अगले तीन माह में एक नई कौशल सीखूँगा।”

सामुदायिक स्तर

ग्राम और नगर स्तर पर पुस्तकालय या सामूहिक अध्ययन स्थल खोलना, ताकि ज्ञान और संवाद जीवित रहें।

स्थानीय परंपराओं और कला का संरक्षण, जिससे सांस्कृतिक रंग बचे रहें।

पारदर्शिता की मांग — किसी भी विकास कार्य के पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभाव की रिपोर्ट आम जनता को उपलब्ध हो।

नीतिगत स्तर

सख्त पर्यावरणीय कानून और उनका पालन सुनिश्चित करना।

तकनीकी नवाचार में नैतिक दिशा को प्राथमिकता देना।

शिक्षा नीति में पर्यावरणीय साक्षरता और नैतिक मूल्यों को अनिवार्य बनाना।

दीर्घकालिक योजनाएँ — केवल चुनावी लाभ के लिए अल्पकालिक निर्णय न हों।

दृष्टांत

भूटान ने “GDP” की जगह “Gross National Happiness” (सकल राष्ट्रीय प्रसन्नता) को प्राथमिक मानक बनाया। यह नीति उदाहरण बताती है कि विकास केवल आर्थिक नहीं बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक और पारिस्थितिक समृद्धि का भी होना चाहिए।

समापन विचार

कुदरत के रंग बदरंग करने वाले “वे” कोई बाहरी शक्ति नहीं हैं, बल्कि हमारी अपनी ही प्रवृत्तियाँ हैं — लालच, अज्ञानता, उदासीनता और सत्ता की भूख। समाधान भी हमारे भीतर ही है। जब व्यक्ति अपने भीतर स्पष्टता लाएगा, समाज में सहयोग बढ़ेगा और नीति में दूरदर्शिता शामिल होगी, तब जीवन के लक्ष्य सरल होंगे और कुदरत के रंग पुनः चटक उठेंगे।

प्रश्न यह नहीं कि दोष किसका है, बल्कि यह है कि समाधान कौन खोजेगा? यदि हर व्यक्ति अपने हिस्से का रंग बचा ले, तो मिलकर यह धरती पुनः इंद्रधनुषी हो उठेगी।

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