सार छंद
।। अंधियारा।।
ॲंधियारे में रहकर जाना, क्या होता उजियारा,
इन दोनों में फर्क यहाँ अब, जान गया जग सारा।
काला अक्षर भैंस बराबर, कहती दुनिया सारी,
पर अंधियारे में खेल रही, वह तो अपनी पारी।
अच्छा सबको लगता अब तो, ये प्यारा अंधियारा
अंधियारे में रहकर जाना, क्या होता उजियारा।
देख नहीं सकती ये दुनिया, जबकि नयन हैं सबके,
कानों से बहरी भी शायद, रहती है यह दबके।
अंधेरे में तीर छोड़कर, देखें नया नजारा,
अंधियारे में रहकर जाना, क्या होता उजियारा।
काला धन है अंधियारा ये, जिससे जग का नाता,
रात दिवस चलता है प्यारे, अंधियारे का खाता।
उजियारे को हार मिली पर, कहाँ यहाँ ये हारा,
अंधियारे में रहकर जाना, क्या होता उजियारा।
जगो उठो अब आँखें खोलो, तम का बादल छाया,
दूर हटाओ जग से इसको, जिसने खूब सताया।
सतपथ पर भी पाँव धरो अब, मोड़ सत्य की धारा,
अंधियारे में रहकर जाना, क्या होता उजियारा।
रचनाकार
श्योराज बम्बेरवाल ‘सेवक’
खेड़ा मलूका नगर
मालपुरा
प्रस्तुति