मुलाकात की कामना… और
समभाव का आलाप
जीवन में कभी-कभी ऐसे प्रसंग बन जाते हैं जहाँ मन में मिलने की इच्छा प्रबल होती है, पर समय अपनी ही लय में चल रहा होता है—और उसी लय में हमारे इरादों की परीक्षा भी लेता है।
राजस्थान के अजमेर से उलझन सुलझन समाचारपत्र के लेडीज विंग की स्थानीय संपादिका डॉ. छाया शर्मा जी का अचानक आया फोन भी ऐसा ही एक प्रसंग था।
स्वर में अनुराग, वाक्य में सरलता—
“भाई साब, मैं आपके नगर मेरठ में हूँ… मिलने का मन है। सम्भव हो पाएगा क्या?”
यह जानकारी किसी शुभ संयोग जैसी लगी।
मेरी व्यस्तता के कारण मुलाकात उसी क्षण संभव नहीं थी, पर मैंने उन्हें विश्वास दिलाया—“कल अवश्य।”
वह उत्साह से बोलीं—“ठीक है, कल मिलते हैं।”
पर जीवन अपने ताने-बाने स्वयं बुनता है।
अगले दिन वे रिश्तेदारों के यहाँ व्यस्त रहीं और समय हाथ से फिसलता गया।
तीसरे दिन भी वही क्रम—फोन चार्ज पर रह गया, वापसी रात में हुई, सर्दी बढ़ रही थी, और बातचीत रुक गई।
जब उन्होंने यह सब स्पष्ट किया तो मन में एक सहज-सी मुस्कान उभरी—कुछ घटनाएँ अपनी गति स्वयं लिखती हैं, हम केवल पात्र होते हैं।
मैंने उन्हें हँसकर कहा—
“शायद अभी ईश्वर ही हमारी मुलाकात नहीं कराना चाहते… शुभ की कामना करते हैं, कर्म को प्रधानता देते हैं, और उचित समय की प्रतीक्षा करते हैं।”
उन्होंने इसे सहजता से स्वीकार किया और अगले दिन देहरादून प्रस्थान का जिक्र किया।
जब वे रवाना हुईं तो मैंने संदेश भेजा—
“आशा है आपकी यात्रा सुखद चल रही होगी।”
और उनका उत्तर आया—
“जी, आपकी शुभकामनाएँ साथ हैं।”
उन कुछ शब्दों में अपनत्व का ऐसा आभास था कि लगा—कभी-कभी दूरी में भी निकटता अपनी पूरी गरिमा के साथ खड़ी रहती है।
और फिर… डॉ. छाया शर्मा जी का मनोभाव
उन्होंने अपने अनुभव को कुछ इस तरह शब्द दिए—
“मुलाकात की कामना मन की मन में रह गई…”
कितना सत्य है यह कि मन चाहता तो बहुत है, पर समय की अपनी परीक्षा होती है—
मुलाकातें टल जाती हैं, क्षण बिखर जाते हैं, और मन अपने भीतर ही एक मौन चाहत को सँभाले रहता है।
उन्होंने लिखा कि न मिल पाना भी जीवन का एक दर्शन है—
जो मिल जाता है वह अनुभव बनता है, जो नहीं मिल पाता वह बोध।
इच्छाओं का अधूरा रह जाना दु:ख नहीं देता, बल्कि आत्मा को परिपक्व करता है।
अपूर्णता ही पूर्णता का आधार बन जाती है।
उनका यह कथन—
“उलझन यही है कि मन चाहता है,
सुलझन यही है कि समय जानता है।”
मानो मेरे अपने विचारों को भी विस्तार देता है।
सच ही तो है—जो क्षण हमारे लिए उपयुक्त नहीं होता, समय उसे रोक लेता है; जो उपयुक्त होता है, वही सहजता से घटित होता है।
दो समानांतर भाव… एक ही निष्कर्ष
मेरी अनुभूति और डॉ. छाया जी की विवेचना—दोनों एक ही दार्शनिक बिंदु पर जाकर मिलते हैं:
कि मुलाकात से अधिक मूल्यवान है—मुलाकात की पवित्र इच्छा।
समभाव का यही सौंदर्य है—
मिलें या न मिलें,
संबंध टूटता नहीं,
वह मन के उस शांत कोने में स्थिर हो जाता है
जहाँ स्मृतियाँ घर बनाती हैं
और समय भी आदर से सिर झुका देता है।
अंत में
मुलाकात भले न हो सकी,
पर भावनाओं की निकटता ने दूरी को महत्वहीन कर दिया।
और यही कारण है कि मैं इस पूरे प्रसंग को
एक संयोग से अधिक—ईश-आशीष मानता हूँ।
क्योंकि—
मुलाकात तो न हो पाई,
पर मन का यह अनुभव
हम दोनों के जीवन में
एक स्थायी, शांत, और सुंदर वृत्तांत बन गया।
सूचना सृजक
उलझन सुलझन ऑफिशियल राजीव
और
डॉ छाया शर्मा
स्थानीय संपादिका
उलझन सुलझन (लेडीज विंग)
अजमेर (राजस्थान)
प्रस्तुति


