कुंडलिया छंद
गुरुवर जैसा है नहीं, इस भू पर दातार,
बंद चक्षु सब खोलते, जो है मन के द्वार।
जो है मन के द्वार, अंधेरा कायम रखती,
माया के अभिभूत, दूर सत से है भगती।
कह सेवक कविराय, होत जैसे है तरुवर,
करते हैं उपकार, सभी पर वैसे गुरुवर।
रचनाकार
श्योराज बम्बेरवाल ‘सेवक’
मालपुरा
चित्र निर्माण
चैट जीपीटी
प्रस्तुति